गुरुवार, 30 सितंबर 2010

परोपकार का रास्ता

बहुत पुरानी बात है। फिलाडेल्फिया में फ्रैंकलिन नामक एक गरीब युवक रहता था। उसके मोहल्ले में हमेशा अंधेरा रहता था। वह रोज यह देखता था कि अंधेरे में आने-जाने में लोगों को बहुत दिक्कत होती है।
एक दिन उसने अपने घर के सामने एक बांस गाड़ दिया और शाम को उस पर एक लालटेन जला कर टांग दिया। लालटेन से उसके घर के सामने उजाला हो गया। लेकिन मोहल्ले के लोगों ने इसके लिए उसका मजाक उड़ाया। एक व्यक्ति बोला, ‘फ्रैंकलिन, तुम्हारे एक लालटेन जला देने से कुछ नहीं होगा। पूरे मोहल्ले में तो अंधेरा ही रहेगा।’
उसके घर वालों ने भी उसके इस कदम का विरोध किया और कहा, ‘तुम्हारे इस काम से फालतू में पैसा खर्च होगा।’ फ्रैंकलिन ने कहा, ‘मानता हूं कि एक लालटेन जलाने से ज्यादा लोगों को फायदा नहीं होगा मगर कुछ लोगों को तो इसका लाभ मिलेगा ही।’ कुछ ही दिनों में इसकी चर्चा शुरू हो गई और फ्रैंकलिन के प्रयास की सराहना भी होने लगी। उसकी देखादेखी कुछ और लोग भी अपने-अपने घरों के सामने लालटेन जला कर टांगने लगे।
एक दिन पूरे मोहल्ले में उजाला हो गया। यह बात शहर भर में फैल गई और म्युनिसिपल कमेटी पर चारों तरफ से यह दबाव पड़ने लगा कि वह उस मोहल्ले में रोशनी का इंतजाम अपने हाथ में ले। कमेटी ने ऐसा ही किया। इस तरह फ्रैंकलिन की शोहरत चारों तरफ फैल गई। एक दिन म्युनिसिपल कमेटी ने फ्रैंकलिन का सम्मान किया। इस मौके पर जब उससे पूछा गया कि उसके मन में यह खयाल कैसे आया, तो फ्रैंकलिन ने कहा, ‘मेरे घर के सामने रोज कई लोग अंधेरे में ठोकर खाकर गिरते थे। मैंने सोचा कि मैं ज्यादा तो नहीं लेकिन अपने घर के सामने थोड़ा तो उजाला कर ही सकता हूं। हर अच्छे काम के लिए पहल किसी एक को ही करना पड़ती है। अगर हर कोई दूसरे के भरोसे बैठा रहे तो कभी अच्छे काम की शुरुआत होगी ही नहीं।