शनिवार, 25 फ़रवरी 2012

सूद-मूल

जिन लोगों ने कभी ब्याज(सूद) पर कर्ज लिया या दिया होगा उन्हें यह भली प्रकार पता होगा कि लेनदार को मूलधन से कहीं ज्यादा ज्यादा फ़िक्र ब्याज की होती है| आप उसका मूलधन भले बीस साल बाद लौटायें, उसको कोई दिक्कत न होगी पर यदि सूद के भुगतान में जरा भी देरी हुई तो उसकी त्योरियाँ चढ़ जाती हैं| सूद तो उसे लगातार चाहिये, इसके क्रम में रुकावट उसे स्वीकार्य नहीं|


        क्या आप इस सूद-लोभ की प्रवृत्ति को मानवीय संबंधों व आपसी रिश्ते-नातों में कहीं देख पाते हैं? अगर आप गौर करें तो आपको पता चलेगा कि आप इसको रोज अनुभव करते हैं| इसको अनुभव करने के लिये आपको किसी का लेनदार या देनदार होने की जरूरत नहीं है, बस अपने आसपास के परिवारों एवं खुद अपने भी परिवार में नजर दौड़ाएं तो आप को कई सूद लोभी अपने सूद  के साथ किलोलें करते नजर आ जायेंगे|
      
           जी हाँ, आप बिलकुल सही सोच रहे हैं| यहाँ बात चल रही है दादा-दादियों और उनके पोते-पोतियों की| दादा अपने पुत्र(मूलधन) से कितना भी नाराज हो जाये पर पोता(सूद) उसे हमेशा ही अत्यन्त प्रिय होता है| बल्कि अधिकतर तो यह देखा गया है कि पुत्र से जितना अधिक मतभेद होता है, जितनी ज्यादा नाराजगी बढ़ती है, उसी अनुपात में पोते से प्रेम भी बढ़ता जाता है| पुत्र से मनमुटाव होने पर दादा अपने नन्हे पोते में अपने पुत्र के उस बचपन को ढूँढता है जब वह अपने पुत्र की एक एक मुस्कान के लिये कुछ भी करने को तैयार रहा करता था| पोते में वो अपना वो पुत्र ढूँढता है जो बहुत आज्ञाकारी हुआ करता था| इधरउधर की वैचारिक बहसों से थके हुये दादा-दादी को जब विशुद्ध प्रेम की जरूरत पड़ती है तो सबसे पहले वे अपने पोते-पोतियों की ओर मुख करते हैं|


        ऐसे किस्से भी अक्सर सुनने को मिलते हैं कि दादा ने अपना सर्वस्व अपने नाबालिग पोते के नाम कर दिया क्योंकि वो अपने पुत्र से नाराज चल रहे थे| जबकि यह सबको पता है कि अंततः वह सम्पत्ति पुत्र के ही अधिकार में होगी पर क्या करें, यही तो सूद लोभ है| वो दादा-दादी जो अपने पुत्र-पुत्रियों से वर्षों दूर रह लेते हैं वो भी अपने पोते-पोती को कुछ दिन के लिये भी दूर नहीं होने देना चाहते| और यदि अपरिहार्य कारणों से उन्हें दूर होना भी पड़ा तो उसे याद करके ममता में आँसू भी बहाया करते हैं| इसे कहते हैं सूद लोभ|


       पर आजकल आधुनिक होने की जंग में इन सूद लोभियों से इनका सूद छिनता जा रहा है| यह छिनैती निजी स्वतंत्रता के नाम पर एकल परिवारों के गठन के फलस्वरूप हो रही है| आधुनिक परिवारों में दादा-दादी नाम के प्राणियों को माता-पिता संभाल नहीं पा रहे हैं(या संभालना ही नहीं चाहते) जिसकी कीमत पोते-पोतियों को भी चुकानी पड़ रही है| उन्हें अपने माता-पिताओं पर होने वाला व्यय भार लगता है पर वो ये नहीं समझते हैं कि सामाजिकता व सांसारिकता का जो पाठ अपने पोते-पोतियों को दादा-दादी पढ़ा सकते हैं वो संसार का कोई विश्वविद्यालय नहीं पढ़ा सकता|


            आज के बालकों व युवकों में बढ़ती हिंसक प्रवृत्ति के पीछे अगर कोई सबसे बड़ा कारण है तो वह यही है कि इनमें से ज्यादातर को अपने दादा-दादी के बहुमूल्य प्यार, आशीर्वाद और ज्ञान से वंचित रखा गया है| वो बच्चे बड़े ही अभागे होते हैं जिन्हें अपने दादा-दादी या इनमें से किसी एक का स्नेहपूर्ण सान्निध्य नहीं मिलता और इसकी कमी जीवन भर खलती है|


           आज यह समाज की महती आवश्यकता है कि इन सूद लोभियों का संरक्षण हो ताकि समाज स्वस्थ बना रहे| 

सोमवार, 6 फ़रवरी 2012

मील के पत्थर

ना तो मैं हताश हूँ, ना ही मैं निराश हूँ|
पर अपनी कमरफ्तारी पर, थोड़ा सा उदास हूँ||

कुछ कमी है रौशनी की अभी, रास्ते भी कुछ धुंधले से हैं|
कभी दूर हूँ मैं रास्ते से, तो कभी रास्ते के पास हूँ ||

कर रहा है प्रश्न निरंतर, ये विचारों का अस्पष्ट प्रवाह|
किसी की तलाश में हूँ मैं, या खुद किसी की तलाश हूँ ||

गतिमान है प्रबल संघर्ष, कामनाओं के ज्वार-भाटे से|
इच्छाओं पर अंकुश है मेरा, या कामनाओं का दास हूँ||

चेहरा तो एक ही है मेरा, इन्सान बहुत से हैं अंदर|
कभी कृष्ण की मुरली हूँ, कभी कंस का अट्टहास हूँ||

यूँ तो आम आदमी हूँ, इक आम जिन्दगी जीने वाला|
पर कुछ लोग ऐसे भी हैं, जिनके लिये मैं खास हूँ||

माना कि कदम धीमे हैं, पर सफर अभी जारी है|
इसमें कोई आश्चर्य नहीं, कि मील के पत्थर तलाश लूँ||