बुधवार, 1 मई 2013

बेड़ियाँ लाओ बेड़ियाँ

जन्म लिया मैंने स्वतंत्र,
प्रकृति की सुखद गोद में,
जन्मते ही पाया
बन्धनों में जकड़ी माँ,
बन्धनों में लिपटा बाप
और ये बंधनप्रिय समाज,
देखी धर्म, जाति की श्रेणियां|

फिर जब आया समय विज्ञान का,
व्यक्ति के उत्थान का,
ज्ञान के सम्मान का,
बन्धनों के अवसान का |
तब पाया मैंने कि
मैं तो किंचित अविकसित हूँ,
मुझ पर संकट है पहचान का|

आह, छूटी जा सब बेड़ियाँ
आह, मिटती जा रही सब श्रेणियां |

व्यक्ति होकर जीने में मुझ पर आफत है
क्योंकि भीड़ में छिपने की मेरी आदत है|

आओ, भीड़तंत्रियों आओ,
आओ, फिर से बनाओ नयी श्रेणियां,
पहनाओ मुझे फिर से नयी बेड़ियाँ|
आदत है मुझे, छूटती ही नहीं
जल्दी करो जल्दी, बेड़ियाँ लाओ बेड़ियाँ||

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