बुधवार, 20 नवंबर 2013

प्रतिमायें

[ प्रतिमायें ]
एक गाँव के पास एक विशेष जगह थी| वहाँ बड़ी बड़ी गगनचुंबी प्रतिमायें खड़ी थीं| प्रतिमायें इतनी ऊँची थीं कि उनका चेहरा भी साफ दिखाई नहीं देता था| इतनी विशाल थीं कि गाँव वाले उनके चरणों से आगे कुछ देख ही नहीं पाते थे| और उन्हीं चरणों की रज लेकर खुद को धन्य समझते थे| उनके बारे में बड़ी कहानियाँ प्रचलित थीं| सब अपने-2 कर्मक्षेत्रों के महान देवता थे| उनकी बड़ी धाक थी| कभी किसी गँवार को उनकी महानता पर शक भी होता तो बाकी सारे अंधभक्त उसको डांट डपट कर चुप करा देते| और उनकी महानता पर उठने वाला कोई प्रश्नचिन्ह उनपर लगने से पहले ही अपनी मौत मर जाता है| गाँव वाले उनकी बहुत इज्जत करते|
ये सिलसिला दशकों तक चला| फिर अचानक गाँव की हवा को जाने क्या हो गया, बहुत तेज बहने लगी| उस स्थान विशेष की जमीन भी सरकने लगी| भव्य प्रतिमायें हिलने लगीं, कुछ तो धीरे-2 जमीन में भी धँसने लगीं| उनके चेहरे भी दिखाई देने लगे| गाँव वाले दौड़े दौड़े आये और ये देखकर आश्चर्यचकित रह गये कि सारी मूर्तियाँ हद दर्जे की नकली थीं| उनके चेहरे की जगह कई सारे नकाब थे, प्याज के छिलकों की तरह गाँव वालों ने एक के बाद एक के नकाब उतारे और असली चेहरा भी देखा| भद्दा और घिघौना चेहरा| गाँव वालों ने ये भी देखा कि एक प्रतिमा के कपड़े उतरे हुये हैं और अन्य प्रतिमायें अपने अपने कपड़े उसे दे रही हैं| नतीजतन सारी प्रतिमायें नग्नावस्था में पड़ी थीं|
अब गाँव वाले इन खंडित मूर्तियों से छुटकारा पाने की सोच रहे हैं| साथ ही साथ अपनी खंडित आस्थाओं से भी| पर कुछ गाँव वाले अभी भी अपने देखे पर यकीन नहीं कर पा रहे हैं| ये सोच रहे हैं कि ये तूफान की साजिश है, जमीन के खिसकने के पीछे भी कोई साजिश है और उन प्रतिमाओं को दुबारा स्थापित करने के पक्ष में हैं|
प्रतिमाओं का क्या होगा ये इस पर निर्भर है कि गाँव वाले अपनी आँखों देखी पर यकीन करेंगे या अंधभक्ति के सागर में गोते लगायेंगे|
- अवनीश कुमार