शुक्रवार, 19 जुलाई 2013

खम्मा / अशोक जमनानी


खम्मा / अशोक जमनानी

किसी भी स्थान पर बसने वालों की संस्कृति से परिचित होना हो तो इसका सबसे सटीक तरीका वहाँ के लोकगीत हैं| लोकगीतों मे लोक की परम्परा निहित होती है| उस क्षेत्र का भूगोल, इतिहास, समाज का तानाबाना, रीतिरिवाज सब कुछ सिर्फ लोकगीतों के सूक्ष्म अध्ययन से पता किये जा सकते हैं| किसी क्षेत्र विशेष के गीतों में वहाँ की स्थानीय वनस्पतियों के नाम, वहाँ के पशुओं के नाम और पहाड़, नदी व अन्य महत्त्वपूर्ण जानकारियाँ उपलब्ध होती हैं| और इन गीतों की जो सबसे बड़ी खासियत है वो यह कि ये जनसाधारण के गीत हैं, इनके लिये किसी विद्वता की आवश्यकता नहीं| ये धनिकों के लिये आरक्षित गीत नहीं हैं, ये सदियों से धरा पर गूँजते हुये गीत हैं जिनमें हमारा आपका इतिहास छुपा है| इन लोकगीतों और लोककलाओं का अपना स्वयं का भी एक इतिहास है| चारण भाट परम्परा से लेकर अल्हैत (आल्हा गाने वाले) और मांगणियार आदि सब इसी परम्परा का हिस्सा हैं| इस अमूल्य धरोहर को सँजोकर रखने की आवश्यकता है और इसका अध्ययन करने की भी बहुत जरूरत है|

इसी परिप्रेक्ष्य में एक कोशिश है अशोक जमनानी का उपन्यास ‘खम्मा’| जमनानी जी ने सतह पर न टिककर डूबने की कोशिश की है और संवेदनाओं में डूबकर वो जो कुछ समेट पाये हैं उसे उन्होने खम्मा में वर्णित किया है| उपन्यास प्रारम्भ करने से पहले ही उन्होने गाँधी जी को उद्धृत किया है| गाँधी जी के अनुसार, लोक-गीत संस्कृति के पहरेदार हैं|







पूरा उपन्यास इसके नायक बींझा के इर्द-गिर्द केन्द्रित है| यहाँ बींझा को समझना उपयुक्त होगा| बींझा मांगणियार परम्परा का आधुनिक चेहरा है, उसके अंदर पारम्परिक कलाकार है, अच्छा सुर है पर वो इस परम्परा के बोझ से मुक्त होना चाहता है| इसलिये नहीं कि उसे गीत संगीत नहीं रुचता बल्कि इसलिये कि उसका आत्मसम्मान खंडित होता है बख्सीस लेने में, हुकुम हुकुम, खम्मा खम्मा करने में| उसका कलाकार सुलभ आत्म सम्मान उसे कहीं भी झुकने से रोकता है| आधुनिक व्यवस्था अपने रोजगार के विकल्पों के साथ उसे आकर्षित करती है| वो शहर का रास्ता नापता है और विदेश जाने के ख्वाब भी रखता है| और पूरी कथा इन्हीं ख्वाबों की है|

कथा के अन्य पात्र हैं मरुखान(बींझा के पिता), सोरठ(बींझा की पत्नी), सूरज(राजपूतों की नयी पौध का प्रतीक), सुरंगी, झाँझर, क्रिस्टीन व ब्रजेन| सारे पात्र परिस्थितियों से जूझते हुये बड़े ही सुंदर दिखाई देते हैं| इन पात्रों में एक चीज ध्यान देने योग्य है| सारे पात्र सकारात्मक रवैये वाले हैं, किसी-2 क्षण कहीं किसी पर नकारात्मकता हावी भी हुई तो बस क्षणिक| उसके बाद फिर से ये जीवन को आशावादी नजरिये से देखने लगते हैं| सबके अंदर जिजीविषा है और साहस भी है| सुरंगी व झाँझर ने जमाने से दबने के बजाय जमाने के दाँव पेंच सीख लिये हैं जो उन्हें ऊर्जा व हिम्मत देता है| उपन्यासकार को अलग से कुछ कहने कि कोई आवश्यकता ही नहीं पड़ती| उसके पात्र इतने सजीव हैं कि सारी बात वे खुद कह जाते हैं|

विचारधारा ढूँढने वालों को यहाँ निराशा हाथ लगेगी| लेखक ने किसी वाद के लिये नहीं लिखा है| लेखक ने एक परम्परा के दीपक की बुझती हुई लौ के बारे में लिखा है, परम्पराओं मे विश्वास करने वाले अपनी विचारधारा यहाँ तलाश सकते हैं| लेखक ने वंचित (शोषित नहीं, शोषित और वंचित में बहुत फर्क है) वर्ग के बारे में लिखा है, वंचितों की बात करने वाले अपनी विचारधारा यहाँ देख सकते हैं| पर इन सबसे ऊपर लेखक ने एक बेहतर कल के सपनों और उम्मीदों के बारे मे लिखा है और सपनों की कोई विचारधारा नहीं होती|

पूरी कथा में एक द्वंद है पुरातन का नवीन से, आदर्श का लोभ से, पूंजी का संस्कृति से, लोकरंग का सिनेमाई रंग से, प्रेम का वासना से| इन द्वंदों के बीच राजपूतों और मांगणियारों के सम्बन्ध को नये संदर्भ में समझने कि चेष्टा है और इन सम्बन्धों के पुनर्परिभाषित होने का द्वंद पूरी कथा में सशक्त रूप से विद्यमान है| वर्तमान संदर्भ में राजपूतों और मांगणियारों के बीच उच्च और निम्न का रिश्ता अप्रासंगिक और त्याज्य है| कलाकार और रसिक के बीच मैत्री का रिश्ता होना चाहिये और अशोक जी यह संदेश देने मे सफल हैं|

उपन्यास का कथानक गतिशील है और पाठक की उत्सुकता बनाये रखने का पूरा जतन किया गया है| कथा कहीं भी बोझिल नहीं है| धोरे-टीले, खड़ताल, मोरचंग, कमायचा, बींदणी, चानंण पख, अंधार पख, पीवणा आदि शब्द एक पूरे सांस्कृतिक परिवेश की सृष्टि करते हैं| बीच-बीच में मोतियों की भाँति सजे गीत पाठक को कहीं और ले जाते हैं, संगीत और प्रेमकहानियाँ मिलकर एक अलग ही भाव प्रस्तुत करती हैं| और वो भाव हमेशा सांस्कृतिक धरोहरों को सहेजने के प्रति सजग करते हैं और यही इस उपन्यास की सफलता है|

अन्त में उपन्यास से कुछ चुने हुये अंश:

1- औरत जिंदगी में आगे तो बढ़ती है लेकिन पीछे छूटे का मोह नहीं छोड़ पाती| बार-बार पलटकर देखती है| (पृष्ठ 66 )

2- जिस कलाकार के दिल को ठेस लगी होती है उसका हुनर केवल हुनर कहाँ रह जाता है? उसके हुनर को तो उसकी पीर, पीर बना देती है| (पृष्ठ 71)


3- एक बात मैं साफ-2 बता दूँ चाहे किसी को मेरा हुनर कितना भी अच्छा क्यों न लगे मैं अपना मेहनताना तो ले सकता हूँ लेकिन बख्सीस या भीख मुझे मंजूर नहीं है| न कभी ली है और न कभी लूँगा| (पृष्ठ 93)

4- दो मरद साथ में रहें तो घर की हालत बिगाड़ दें लेकिन दो औरतें एक घर में हों और घर गंदा रहे तो समझ लेना कि दोनों के दिल में बैर है| (पृष्ठ 94)

5- धोरे टीलों की किस्मत में विधाता ठहराव कहाँ लिखता है| धोरे टीले जिनके पैरों से लिपटते हैं वो भी उनकी शक्ल बिगाड़ कर आगे बढ़ जाते हैं| जिन्हे वो अपनी गोद में बहुत मुहब्बत के साथ पनाह देते हैं वो भी बैठे बैठे बेवजह ही उनके साथ खिलवाड़ करते रहते हैं| हर एक आमद धोरे टीलों का रूप बिगाड़ती है और शायद उन्होने भी इसे किस्मत का लिखा मानकर सब कुछ सहने का मन तो बना लिया है| लेकिन कहीं न कहीं एक टीस बाकी है इसलिये ये धोरे-टीले धीमे धीमे सरकते हैं और कभी कोई बेखुदी मे उनकी कगार पर पहुँच जाता है तो उसे लेकर इस तरह फिसलते हैं कि वो रेत में डूबा शख़्स जब उबरता है तो धोरे-टीलों का मन उसे देखकर देर तक खिलखिलाता है| लेकिन इन्हीं कगारों पर रहे ऊँटों से धोरे-टीलों का एक समझौता सा हो गया है, वो उन्हे नहीं गिराते| जब तेज हवायें धोरे-टीलों का रूप रूप बिगाड़ती हैं और उनकी रेत उड़कर न जाने कहाँ से कहाँ पहुँच जाती है तब ये ऊंटों के कारवाँ ही तो हैं जो वहाँ जा जा कर धोरे-टीलों की बिछड़ी रेत को उनके बिछड़े हुओं का संदेशा सुनाते हैं और वहाँ इनके पाँव से लिपटकर वो रेत उनसे मिल लेती है जिनसे बिछड़े हुये जमाना बीत चुका होता है| शायद इसी रिश्ते की दुहाई लेकर ऊँट इन धोरे-टीलों पर बेफिक्र होकर चलते हैं| (पृष्ठ 106 )

6- लेकिन कुछ कलाकार हैं जो किसी के आगे सिर नहीं झुकाते| उनकी आवाज में वो नूर होता है जो लोगों की रूह तक पहुंचता है| ( पृष्ठ 155 )

7- मांगणियार नहीं गाते, माडधरा गाती है मांगणियारों के गले में उतरकर (आवरण पृष्ठ)

ढ़ोला मारू के गीत


[ढ़ोला मारू के गीत - अशोक जमनानी जी की पुस्तक 'खम्मा' से साभार]

अकथ कहानी प्रेम की किणसूं कही न जाय
गूंगा को सुपना भया, सुमर-सुमर पछताय|

प्रेम की कहानी ऐसी, खुद प्रेम ऐसा कि वो ठीक से किसी से बताया न जाए| जैसे कोई गूंगा कभी सपना देख ले और अपना वो अनमोल सपना सबको बताना भी चाहे तो बता नहीं सकता क्योंकि वो तो बोल ही नहीं सकता| बस, मोहब्बत की कहानी भी ऐसी ही अकथ होती है| वो कही नहीं जा सकती| ढ़ोला-मारू का ब्याह तो बचपने में ही हो गया था| फिर दोनों अपने-अपने घरों को चले गए| पर जब मारू सयानी हुई तो ढ़ोला कि याद में, उसकी विरह में उसका दुख ऐसा पिघला कि जब-जब उसे ढ़ोला की याद आती तब-तब उसे ऐसा लगता कि मानो कोई तीर आकर उसे चुभ रहा हो| वो बस एक ही बात सोचती थी कि काश उसे पंख मिल जायें तो वो उड़कर अपने ढ़ोला के पास चली जाए|



जिमि जिमि सज्जण संभरई तिमि तिमि लग्गइ तीर
पंख हुवइ तो जाइ मिलि, मनां बंधाड़ां धीर

मारू अपने मन को दिलासा देती कि शायद उसे पंख मिल जायेंगे तो वो उड़कर अपने ढ़ोला के पास चली जायेगी| लेकिन प्रेमियों का मन तो हर पल बदलता रहता है| मारू एक पल तो खुद को दिलासा देती लेकिन फिर दूसरे ही पल खुद से कहती कि अगर भाग्य ही उल्टा है तो पंख मिलने से भी क्या होगा? वो कहती कि चकवी के भी तो पंख हैं लेकिन वो फिर भी रात में अपने पिया से नहीं मिल पाती|

पंखड़ियां ई किऊं नहीं, देव अवाडू ज्यांह
चकवी कइ हइ पंखड़ी, रवणि न मेलउं त्यांह

मारू सोचती है कि वो अपना संदेसा ही ढ़ोला तक पहुंचा दे क्योंकि संदेसे का मोल भी कम नहीं है| लेकिन वो सोचती है कि संदेसा ले जाने के लिए कोई ऐसा मिलना चाहिए जो उसका संदेसा सुनाते समय अपनी आँखों में उतना ही पानी भर सके जितना ढ़ोला की आंखों में है| अगर ऐसा संदेसा सुनाने वाला कोई मिल गया तो उसका संदेसा अनमोल हो जाएगा नहीं तो उसका कोई मोल ही नहीं होगा|


संदेसा ही लख लहई, जउं कहि जाणइ कोई
ज्यूं धणि आखई नयण भरि ज्यूं जइ आखई सोइ

मारू कहती है कि मेरा संदेसा तो पहुंचे लेकिन जवाब में मेरा ढ़ोला मुझे कोई संदेसा न भिजवाए बल्कि खुद ही आ जाये| क्योंकि उसने संदेसे के बदले संदेसा भिजवा दिया तो मैं उस संदेसे को बांच ही नहीं पाऊँगी क्योंकि बिरहा ने मेरी उँगलियों को गला दिया है और मेरी आंखों में इतने आँसू हैं कि मुझे कुछ भी दिखाई ही नहीं देता|

संदेसा मत मोकलउ प्रीतम तू आवेस
आंगुलड़ी ही गलि गयां नयण न वांचण देस

मारू वीछोड़े के कारण अपने सपनों से भी बहुत नाराज है वो कहती है कि वो अपने सपनों के दिलों में छेद करवाकर उन्हें खत्म करवा देगी क्योंकि उसके सपने आँखें बंद करने के बाद भी उसे अकेला रहने नहीं देते और उसके ढ़ोला को उसके पास ले आते हैं और जब वो उन सपनों पर भरोसा करके आंखें खोलती है तो वो खुद को अकेली ही पाती है|

सुहिणा तोहि मराविसूं हियइ दिराऊं छेक
जद सोऊं तद दोइ जण जद जागूं तद ऐक

मारू ढ़ोला को लोभी होने का उलाहना देकर कहती है कि अब तो घर लौट आओ .............

लोभी ठाकुर आवि घर
आवि घर S S S S
आवि घर S S S S
कांई कराइ विदेस
आवि घर
आवि घर S S S S “