रविवार, 5 जनवरी 2014

हर क्षण हर दिन



महानगरों की भीड़ में
पसीने से तर बतर
कहीं भाग जाने की जल्दी में
बदहवास से चेहरों पर
लिखी इबारतें पढ़ते हुये

सड़कों और रेल की पटरियों पर
चीखते वाहनों की आवाज में
कारखानों के धुंवे को देखते हुये
और मशीनों की खटपट को
सुगम संगीत सा सुनते हुये

लोगों के क़हक़हों में बसी
लोगों के शोरगुल में छिपी
अनकही सी गहराती हुई
खामोशी को महसूस करते हुये 

कई दिनों के बाद कभी
एकान्त मिलने पर
उमस में कभी
बारिश की दो बूंद पड़ने पर
उस खुशी को महसूस करते हुये

अक्सर यही खयाल आता है
कि क्या यही सच है जीवन का
भागना एक अंजाने गन्तव्य की ओर
उलझना
, सुलझना, घबराना, टकराना
गिरना
, उठना और फिर सरपट दौड़ना

खेलना मशीनों से दिन रात
गुम होती आपस की बात
दौड़ में भूलते हुये पड़ाव
छूटता हुआ प्रकृति का साथ

कम होता पुष्पों से प्रेम
भूल रही पीपल की छाँव
विस्मृत होता सौंदर्य बोध
भूल गये कुएं और गाँव 

ये दौड़ तो सच नहीं
ये दौड़ है बस एक छलावा
और हम हर क्षण हर दिन
छ्ले जा रहे हैं
फिर भी और तेजी से
हम हम हर क्षण हर दिन
चले जा रहे हैं

1 टिप्पणी:

Dr. Rajeev K. Upadhyay ने कहा…

बदलते परिवेश पर सुन्दर रचना। स्वयं शून्य