सोमवार, 11 अगस्त 2014

हर बहाना ढूँढता है

 मेघ घने छा गए, उजाले को खा गए
दिशा सूझती नहीं, नजर कुछ बूझती नहीं
अँधियारा है और वो ठिकाना ढूँढता है
गम को छिपाने का हर बहाना ढूँढता है


कल को जो सतेज था,और आज जब निस्तेज है
कल जो रखता धीर था, आज अति अधीर है
इस सफ़र के बीच का सारा फ़साना ढूँढता है
गम को छिपाने का हर बहाना ढूँढता है

बाहर की हो चोट तो होता नहीं कोई असर
अन्दर की चोट हो अगर, तो करें कैसे बसर
इस चोट के इल़ाज को, वो दवाखाना ढूँढता है
गम को छिपाने का हर बहाना ढूँढता है।

---- अवनीश सिंह