बुधवार, 25 मार्च 2015

बिहार में नक़ल की तस्वीर


बिहार की ये तस्वीर सोशल मीडिया पर बहुत वाइरल हो रही है| और बिहार की शिक्षा व्यवस्था का मखौल उड़ाया जा रहा है| मेरी अपनी राय इस सामान्यीकारण के कहीं विपरीत है|

१ - तस्वीर के मुताबिक़ विद्यालय के कर्मचारी इसमें सम्मिलित नहीं हैं| यदि वे सम्मिलित होते तो किसी को छत पर चढ़ने की जरूरत न पड़ती| रुपये पैसे ले देकर अंदरखाने में ही सेटिंग हो जाती|

२ - पर्चियाँ अंदर पहुँच रही हैं कि नहीं ये कक्ष निरीक्षक पर निर्भर है| कक्ष निरीक्षक को कुछ पता हो न हो इतना जरूर पता है कि जो लोग अपनी जान पर खेलकर यहाँ पर पर्ची ला रहे हैं वो उसकी भी जान से खेल सकते हैं| कोरे आदर्शवाद से कुछ नहीं होता| उसको भी घर वापस जाना है|

३ - स्टाफ़ की कमी और स्थानीय गुंडा तत्वों का डर भी विद्यालय प्रशासन को सख्त कार्रवाई कर पाने में रुकावट बन सकता है| स्थानीय पुलिस और उड़नदस्ते की आवश्यकता है|

४ - नक़ल नक़ल का शोर मचाने से पहले हमें ये भी सोचना होगा कि आखिर वे कौन से हालात हैं कि अभिभावक अपने बच्चों को गलत माध्यमों से पास करा रहे हैं और इतना ही नहीं अपनी भी जान जोखिम में डाल रहे हैं| ये हमारी शिक्षा व्यवस्था की दीनता की तस्वीर है, नक़ल की नहीं|

५ - नंबर गेम| आजकल लगभग हर प्रतियोगी परीक्षा या नौकरी के लिये नम्बर्स और ग्रेड्स के पैमाने तय होते हैं| जैसे न्यूनतम ७० %, न्यूनतम फर्स्ट क्लास आदि|
अब जो छात्र ४० - ५९ % वाला है वो क्या करे? वो तो न पास हुआ न फेल| उसके लिये क्या रास्ता है? क्या उसको सेकण्ड या थर्ड डिवीजन लाने के बजाये फेल हो जाना चाहिये था?

६ - जब सिर्फ ६०+ की ही स्वीकार्यता है और उससे नीचे वालों को सरकारी / गैरसरकारी संस्थान न तो आगे पढ़ने लायक समझते हैं और न ही नौकरी पाने लायक समझते हैं तो ऐसे हालातों में कोई भी चाहेगा कि येन केन प्रकारेण उसका पुत्र / पुत्री ६०+ ही रहे| भले ही उसे ये अच्छी तरह पता है कि उसके पुत्र / पुत्री में योग्यता ६० - वाली है|

८ - असल मसला नकल और उस पर रोक लगाने का नहीं है बल्कि इस सड़ी हुई शिक्षा को बदलने का है| एक ऐसी व्यवस्था की आवश्यकता है जिसमें निर्बल का भी सम्मान हो, जो सह अस्तित्त्व को बढ़ावा दे| एक ऐसी रोजगार व्यवस्था जो कम ग्रेड्स वालों को भी इंसान समझे, उनमें भी हुनर है और काबिलियत है, इस पर विश्वास करे|

शिक्षा और रोजगार व्यवस्था में परिवर्तन किये बिना सिर्फ इस तस्वीर का मजाक उड़ाना बेमानी है| ऐसी तस्वीरों को नहीं देखना है तो मूल कारण को ही समाप्त करना होगा|

शुक्रवार, 13 मार्च 2015

ख़ुशी खरीदी जा सकती है


लोग कहते हैं कि पैसे से ख़ुशी नहीं खरीदी जा सकती| पर मुझे लगता है कि पैसे से ख़ुशी खरीदी जा सकती है, वो भी ढेर सारी ख़ुशी| बस इतना ध्यान देना है कि पैसा सही जगह और सही तरीके से खर्च हो, टाइमिंग का भी महत्त्व है|
जैसे किसी का जन्मदिन हो और आप उसके लिये सरप्राइज़ पार्टी रखें, उसको कोई उपहार दें| किसी को फोटोग्राफी में रूचि है, उसको कैमरा दे दें| कोई पढ़ने का शौकीन है, उसे उसकी रूचि की पुस्तक दे दें| किसी को कुछ सीखना है वो सिखा दें| अगर खुद नहीं सिखा सकते तो उचित व्यक्ति के पास भेजें| किसी से सीरियस बातें कर रहे हों और एकाएक चाकलेट खाने को दे दें|
फिर देखें, ख़ुशी कितनी आसानी से खरीदी जा सकती है|
ये बात मैंने Arun Mishra सर से सीखी है|