मंगलवार, 12 जुलाई 2011

अंधेरों के ये आँसू

कोई मुझको बता दे ये , कहाँ जाऊं , किधर जाऊं |
जो कुछ है खो गया मुझसे , कहाँ ढूँढू , कहाँ पाऊं ||
मैं दुनिया के उजालों में , मचल कर गीत गाता हूँ |
अंधेरों के ये आँसू ,कहाँ किसको मैं दिखलाऊँ ||
जो पीड़ा , जो वेदना , जो तृष्णा , छिपी है ह्रदय के भीतर |
मैं वो पीड़ा , वो सिसकी , कैसे अधरों पे ले आऊँ ||
कभी जो मित्र थे मेरे , पहुँच से दूर जा पहुँचे |
अपनी पहुँच को उनकी पहुँच तक , मैं आखिर कैसे पहुँचाऊँ ||
जब यारों का जमघट था , महफ़िलें खूब सजती थीं |
आज जब बिलकुल तनहा हूँ , कैसे महफ़िल मैं सजाऊँ ||
मैं भी अज्ञानी ठहरा जो , रेत को कस कर पकड़े था |
आज जब हाथ खाली है , तो दोषी किसको ठहराऊँ ||
कोई मुझको बता दे ये , कहाँ जाऊं , किधर जाऊं |
जो कुछ है खो गया मुझसे , कहाँ ढूँढू , कहाँ पाऊं ||

6 टिप्‍पणियां:

Deepak Saini ने कहा…

मन की पीड़ा को बहुत अच्छे शब्द दिए है आपने
बधाई

बेनामी ने कहा…

मनोभावों की सहज और सार्थक प्रस्तुति

संजय भास्‍कर ने कहा…

सार्थक प्रस्तुति

Shikha Kaushik ने कहा…

अवनीश जी -शायद तृष्णा hi सभी प्रकार की वेदना पैदा करती है .आपने सही लिखा है - ''जो पीड़ा , जो वेदना , जो तृष्णा , छिपी है ह्रदय के भीतर |
मैं वो पीड़ा , वो सिसकी , कैसे अधरों पे ले आऊँ ||''

shikha kaushik ने कहा…

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सहज समाधि आश्रम ने कहा…

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