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शनिवार, 6 मई 2017

नीरवता के सेतु

सोचता हूँ नीरवता के साम्राज्य में 
अंदर भेजूँ गुप्तचर कुछ शब्दों के 

तेरी शान्त जिह्वा में कराऊँ कुछ कम्पन
हो उदगार जो अभी अर्द्ध उच्चारित हैं

पर हमारे बीच की ये नीरवता ही शायद नियति है
समानान्तर रेखाओं जैसे हमारे शब्द भी कभी नहीं मिलने

हमें चाहिए एक सेतु जो जोड़ दे
आपस मे समानान्तर रेखाओं के सिरे

शनिवार, 18 जून 2016

जमाना कहता है मुझको पागल सा

वो गर्मियों की अलसाई साँझ औरआसमान पर लहराता हुआ छोटा सा टुकड़ा बादल का

उसकी छाँव में टहलते बच्चे खेलने जाते हुये, खेलकर आते हुये माथे पर ठहरा है पसीना हल्का सा

गिरधारी चचा के बाग़ में बैठी
कुहू कुहू करती कोयल
रंग है जिसका काजल सा

साथ में पढ़ी किताबों के पन्ने
जिनमें गुलाब की पंखुडियां रखी थीं
जिनमें खुशबु है बीते कल की

अक्सर ये सब देखते सोचते
कहीं खो जाता हूँ मैं
और जमाना कहता है मुझको पागल सा

:: अवनीश कुमार

शनिवार, 20 जून 2015

आम आदमी का सीन

वो हमेशा चुप रहता है
वो सुख और दुःख दोनों को दबाकर जीता है
वो जुल्म सहता है , जुल्म होने देता है
वो जो सबसे बड़ा तमाशबीन है
वो जो दफ्तरों में धक्के खाता है
जो हर काम में लिये लाइन में लग जाता है
वो जो घर से जल्दी निकलता है
और रात को देर से जाता है
वो जो मेहनत करता है
और मुनाफा बिचौलिया खाता है
वो जो इतना दीन है
कहने को तो बहुत है पर
आगे का हाल फिर कभी
हाँ, इतना बता दूँ कि
ये आम आदमी का सीन है।

बहाव


तुम सुनते रहे, मैं कहता रहा
तुम रोकते रहे, मैं बहता रहा
पर जब बहाव बढ़ता गया
तो तुम भी क्यूँ न बह गये,
आखिर तुम किनारे ही क्यूँ रह गये ??

पूछो न कुछ परिचय, मित्र !

पूछो न कुछ परिचय, मित्र !
समझो इतना आशय, मित्र !
बस मिलो सदा ऐसे हँसकर,
अब रहो सदा उर में बसकर,
हर क्षण हो जीवन का सुखकर,
कर लो इतना निश्चय, मित्र !
चहुं ओर जब पुष्प खिलेंगे,
जब अवरोधों के मूल हिलेंगे,
जीवन पथ पर पुनः मिलेंगे,
करिये ना कुछ संशय, मित्र !

शुक्रवार, 29 मई 2015

[मेरी प्रथम बाल कविता - "बोलो पानी क्यूँ है नीला"]

दो भाई श्यामू और रामू
दोनों शरारती बंदर,
एक दिन की ये बात सुनो
वो गए घूमने समुन्दर|

बोलो पानी क्यूँ है नीला
रामू पूछे श्यामू से,
क्यूँ नहीं काला या पीला
रामू पूछे श्यामू से|

श्यामू भी बच्चा था आखिर
श्यामू तो फिर क्या बोले
श्यामू बोला चल रामू
चल सबसे पूछें भोले|

रामू ने मम्मी से पूछा
मम्मी ने पापा से पूछा
पापा ने चाचा से पूछा
चाचा ने दादा से पूछा

सबने इससे उससे पूछा
फिर भी न उत्तर किसी को सूझा
अब तो मास्टर जी से पूछो
बचा न कोई रस्ता दूजा|

मास्टर जी हैं बड़े प्रतापी
मास्टर जी विद्वान हैं,
कहते हैं कि पास मे उनके
कईयों कुंतल ज्ञान है|

श्यामू ने उनसे भी पूछा
बोलो पानी क्यूँ है नीला
बोलो बोलो मास्टर जी
क्यूँ नहीं ये लाल पीला|


 

 मास्टर जी थोड़ा मुस्काये
फिर थोड़ा सा ध्यान लगाये
दोनों को फिर पास बिठाये
और उनको उत्तर बतलाये|

सूरज से किरणें आती हैं
फिर सब दिशाओं में जाती हैं
नदी, सरोवर या हो समुद्र
जल में भी घुस जाती हैं|

ये किरणें सतरंगी हैं
सारी रंग बिरंगी हैं
जो चीज जैसा रंग लौटाये
वो वैसे रंग में रंगी है|

समुन्दर है इतना गहरा
किरणें तल तक न जातीं
ऊपर ही ऊपर से लगभग
सब की सब वापस आतीं|

पानी सोखे सारे रंग
लौटाये बस नीला रंग
देख के उसका ऐसा करतब
तुम दोनों बैठे हो दंग|

जब वो नीला लौटाता है
खुद नीला ही हो जाता है
फिर ये उसका नीला रूप
हम सबको ही लुभाता है|

जो जैसा सबको देता है
खुद भी वैसा ही पाता है
सुन लो प्यारे रामू श्यामू
ये सागर यह सिखलाता है|

सोमवार, 24 नवंबर 2014

मुझे मिलना है उससे

मुझे मिलना है उससे
मुझे मिलना है उससे
जो सुन लेता है हमेशा मेरी पदचाप
सुनता है मेरी बातें तब भी
जब मैं होता हूँ चुपचाप 


जो अँधेरे में भी पहचानता है मेरा चेहरा
जो मेरी हलकी सी आहट पर,
मेरे माथे पर पड़ी पसीने की बूँद
को देख कर कहता है
कि थोड़ा आराम कर लो|

वो जो तब भी साथ होता है
जब परछाई भी नहीं होती है
वो जो हर आने वाली सुबह
धीरे से कहता है
कि चलो, सफ़र पर निकलना है
अब कर लिया आराम,
नया पथ तलाशना है

वो जो कहीं मेरे अन्दर बैठा
मुझे निर्देशित करता है
वो जो हर दुविधा का कोई
हल निकाल सकता है
वो आखिर कहाँ छुपा है
मुझे मिलना है उससे

शनिवार, 22 नवंबर 2014

तुम वो कविता हो

तुम वो कविता हो
जिसे मैं कहना ही नहीं चाहता
क्यूंकि नहीं चाहता मैं
कि तुम्हें पढ़ा जाये
नहीं, तुम पढ़ने के लिये नहीं
महसूस करने के लिये हो
तुम वो कविता हो जो
कभी लिखी नहीं जायेगी
और न ही कभी पढ़ी जायेगी
वो कविता जो जियेगी मेरे साथ
और साथ में ही चली जायेगी

बुधवार, 12 नवंबर 2014

मैं तुम्हें पुकारता हूँ

कभी अपनी मुस्कुराहट के बीच,
कभी आँसुओं के साये में
मैं तुम्हें पुकारता हूँ

वो पुकार कभी गुम हो जाती है
कभी तुम तक पहुँच जाती है
कभी गूँजती है मैदानों में
कभी टकराकर लौट आती है 


तुम आओ या न आओ
काफ़ी है बस ये एहसास
कि मैंने तुम्हें पुकार लिया
अपने हर दुःख में
और शामिल किया हर सुख में

ये पुकार एक तसल्ली है
झूठी ही सही पर
इसके होने से
तुम्हारे न होने का
खालीपन कम होता है

सोमवार, 11 अगस्त 2014

हर बहाना ढूँढता है

 मेघ घने छा गए, उजाले को खा गए
दिशा सूझती नहीं, नजर कुछ बूझती नहीं
अँधियारा है और वो ठिकाना ढूँढता है
गम को छिपाने का हर बहाना ढूँढता है


कल को जो सतेज था,और आज जब निस्तेज है
कल जो रखता धीर था, आज अति अधीर है
इस सफ़र के बीच का सारा फ़साना ढूँढता है
गम को छिपाने का हर बहाना ढूँढता है

बाहर की हो चोट तो होता नहीं कोई असर
अन्दर की चोट हो अगर, तो करें कैसे बसर
इस चोट के इल़ाज को, वो दवाखाना ढूँढता है
गम को छिपाने का हर बहाना ढूँढता है।

---- अवनीश सिंह

रविवार, 5 जनवरी 2014

हर क्षण हर दिन



महानगरों की भीड़ में
पसीने से तर बतर
कहीं भाग जाने की जल्दी में
बदहवास से चेहरों पर
लिखी इबारतें पढ़ते हुये

सड़कों और रेल की पटरियों पर
चीखते वाहनों की आवाज में
कारखानों के धुंवे को देखते हुये
और मशीनों की खटपट को
सुगम संगीत सा सुनते हुये

लोगों के क़हक़हों में बसी
लोगों के शोरगुल में छिपी
अनकही सी गहराती हुई
खामोशी को महसूस करते हुये 

कई दिनों के बाद कभी
एकान्त मिलने पर
उमस में कभी
बारिश की दो बूंद पड़ने पर
उस खुशी को महसूस करते हुये

अक्सर यही खयाल आता है
कि क्या यही सच है जीवन का
भागना एक अंजाने गन्तव्य की ओर
उलझना
, सुलझना, घबराना, टकराना
गिरना
, उठना और फिर सरपट दौड़ना

खेलना मशीनों से दिन रात
गुम होती आपस की बात
दौड़ में भूलते हुये पड़ाव
छूटता हुआ प्रकृति का साथ

कम होता पुष्पों से प्रेम
भूल रही पीपल की छाँव
विस्मृत होता सौंदर्य बोध
भूल गये कुएं और गाँव 

ये दौड़ तो सच नहीं
ये दौड़ है बस एक छलावा
और हम हर क्षण हर दिन
छ्ले जा रहे हैं
फिर भी और तेजी से
हम हम हर क्षण हर दिन
चले जा रहे हैं

गुरुवार, 17 अक्टूबर 2013

हम प्रगति कर रहे हैं


हम प्रगति कर रहे हैं

सदियों पुरानी अँधेरी दुनिया के,
अँधेरे को ललकार रहे हैं
अँधेरे में डूबे लोग
अँधेरे मिटाने में लगे हैं

यह सदी है रौशनी के आधिक्य की,
उजाला इतना ज्यादा है
आँखों में इतना चमकता है
कि आँखें चौंधिया गयी हैं
कुछ सूझता ही नहीं
इस उजाले के अंधेपन से
कोई जूझता भी नहीं

ये उजाले के मायाजाल में
कौन है जो हमें लूट रहा है
अभी तनकर खड़े भी न हुये
अभी से नींव में क्या टूट रहा है

उजालों में परछाईं बन हर रोज बिखर रहे हैं
हाँ, हम प्रगति कर रहे हैं

सोमवार, 17 जून 2013

बेटा, तुमसे ना हो पायेगा

कथा उस समय की है जब हिन्दी साहित्य के आकाश मे रचनात्मकता पर ग्रहण लगा हुआ था| लेखक और पाठक एक दूसरे से दूर जा रहे थे| हिन्दी अपने तमाम स्वघोषित सेवकों की सेवा के बावजूद भी दिन ब दिन दुबली होती जा रही थी| लेखकों की संख्या तो रक्तबीज की तरह बढ़ रही थी पर सुधी पाठक गिद्धों की तरह विलुप्त हो रहे थे| ये साहित्य का संक्रमण काल था| लेखक पाठक का संवाद पुल टूट चुका था और उस टूटे पुल के अवशेषों पर मठाधीशों का अबाध तांडव नृत्य चल रहा था|

इसी समय एक युवक हिन्दी साहित्य की इस दुर्दशा से परेशान था| अपनी मातृभाषा की ये हालत देखकर उसका हृदय वेदना से भर जाता था| युवक का नाम भावेश था| भावेश वैसे तो इंजीनियर था पर उसके भाव उसे साहित्य की दुनिया से जोड़ते थे| उसे ये एकरस साहित्य बिलकुल अच्छा नहीं लगता था| वह अक्सर सोचता कि हिन्दी में भी भिन्न भिन्न विषयों पर खूब लेखन हो, हिन्दी की पुस्तकों का बड़ा बाजार हो, लेखक सिर्फ लेखन कर्म से ही जीविका चला सके, हिन्दी के लेखक भी अँग्रेजी के लेखकों की तरह पूजे जायें, उनकी पुस्तकों पर भी कई-कई फिल्में बनें और उनके आगे पीछे भी रूपवती कन्याओं के झुंड आटोग्राफ के लिये मँडराते रहें| पर ये सब होने की उसे दूर दूर तक कोई संभावना नहीं दिख रही थी| फिर जब उसका हृदय एक दिन भावावेश से द्रवित हुआ तो उसने ये काम खुद ही करने की ठानी| उसने सोचा कि वह जन जन के लिये लिखेगा और उसे आम जन तक पहुंचायेगा भी| अपनी मातृभाषा के साहित्य को समृद्ध करने की कल्पना से वह बड़ा खुश हुआ और हिन्दी में अच्छा लिखने का बीड़ा उठा लिया| पर अब इतना सोच लेने भर से तो कोई लेखक कवि हो नहीं जाता| लेखन तो साधना है और साधना के लिये मार्गदर्शक गुरु की आवश्यकता पड़ती है| भावेश को बचपन में माँ द्वारा गुरु महिमा के बारे में सुनाई बातें याद आने लगीं और उनके रीमिक्स भावेश के कानों में गूँजने लगे| 
                  “गुरु बिन कोई न जाने, गुरु बिन कहीं न पूछ |
                     गुरु बिन पुस्तक ना छ्पै, तू बस गुरु को पूज ||”

तो गुरु की खोज प्रारम्भ हुई| भावेश अक्सर साहित्यिक कार्यक्रमों में जाने लगा लेकिन उसे वहाँ साहित्य छोड़ बाकी सब मिलता था, बस साहित्य ही नहीं मिलता था| ईश्वर की कृपा से कहिये या संयोगवश, उसके एक समान अभिरुचि वाले दोस्त ने उसे गुरु की तलाश में व्यग्र होकर भटकते देख लिया तो उसने इसे बुलाया| फिर उसने भावेश को बताया कि तुम्हारा मस्तिष्क जिन प्रश्नों के उत्तर के लिये मचल रहा है, उसका उत्तर तो सिर्फ एक ही व्यक्ति दे सकते हैं और वो हैं मोहन लाल “क्रांतिवीर”| उनके द्वारा बनाये गये लेखन के अष्ट महासूत्र पाणिनी के अष्टाध्यायी की तरह प्रसिद्ध हैं| तुम शीघ्र ही उनसे मिलो| भावेश ने पूछा कि ये कहाँ मिलेंगे तो मित्र ने बताया कि जे एन यू विश्वविद्यालय में तुम किसी से भी पूछोगे वो तुम्हें बता देगा, उनके महात्म्य से सभी परिचित हैं|

 आखिर भावेश की मेहनत रंग लाई और वो विश्वविद्यालय जा पहुँचा | विश्वविद्यालय पहुँचते ही उसने एक कर्मचारी से पूछ लिया कि यहाँ मोहन लाल जी कौन हैं और कहाँ मिलेंगे| कर्मचारी का मुँह विस्मय से खुला रह गया| उसे यकीन ही नहीं हो रहा था कि यह लड़का क्रांतिवीर जी को नहीं जानता है| “तुम क्रांतिवीर जी को नहीं जानते| अरे, साहित्य के बहुत बड़े सूरमा हैं ये| जाने कितने संपादक इनके चरणों मे ज्ञान प्राप्त करके आज धन्य हो गये| इनको मिले पुरस्कार गिनाने बैठूँ तो रात हो जाये, क्रांतिवीर जी साहित्य सूरमा, किताबी तलवारबाज़, सर्वश्रेष्ठ किताबी क्रांतिकारी, साहित्य रत्न, लाल क्रांति का लाल सपूत आदि पुरस्कारों से सुशोभित हो चुके हैं”,  उसने भावेश को एक ही साँस में बताया| भावेश उस पल को कोस रहा था जब उसने इंजीनियरिंग में दाखिला लिया था| इस निगोड़ी इंजीनियरिंग के चक्कर में पड़कर वो न जाने कितनी विभूतियों के दर्शन से वंचित रह गया था| फिर उस कर्मचारी ने भावेश से कहा कि वो क्रांतिवीर जी के आवास पर ही उनसे मिल ले तथा आवास की ओर इशारा कर दिया|

भावेश द्रुत गति से क्रांतिवीर जी के दर्शन को रवाना हुआ| क्रांतिवीर जी विश्वविद्यालय प्रदत्त विशाल बंगले में रहते थे| भावेश जब इनके कक्ष में पहुँचा तो ये ढेर सारे शिष्य व शिष्याओं से घिरे हुये थे, शिष्याओं की संख्या अधिक थी| सामने दीवार पर कोट पहने हुये किसी लंबी दाढ़ी वाले बाबा की तस्वीर लगी थी और पूरे कमरे में लाल जिल्द वाली पुस्तकों का अंबार लगा हुआ था| वातानुकूलित कक्ष में गुरुजी सोफ़े पर विराजमान थे| डेनिम की जींस और कुरता क्रांतिवीर जी पर खूब जँच रहा था| तभी कक्ष में गुरुजी के बेटे का भी प्रवेश हुआ| फोर्ड कार की चाबियाँ लहराते हुये वो बोला- “डैडी, आपने आज मैकडोनल्ड ले चलने का वादा किया था और आप फिर भूल गये| पिछली बार जब केएफसी गये थे तब भी आपकी ही वजह से देर हुई थी और मैं तो चिकन अधूरा ही छोड़कर चला आया था|” क्रांतिवीर जी ने उसे शांत कराया और बोले कि बेटा थोड़ी देर रुक जाओ, इस बालक से मिल लूँ फिर चलता हूँ| भावेश ने तुरंत लपक कर गुरुजी के पैर छूये| गुरुजी ने उसे बैठने का इशारा किया तो वो सोफ़े पर ही बैठ गया| अन्य शिष्यों ने उसे सोफ़े से उतरकर नीचे फर्श पर बैठने का इशारा किया| जब वह फर्श पर बैठ गया तो गुरुजी उससे मुखातिब हुये| उन्होने पूछा- “कहो वत्स, कैसे आना हुआ|
भावेश – “जी, मैं साहित्य का ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूँ| कुछ करना चाहता हूँ और आपके जैसा महान बनना चाहता हूँ|
क्रांतिवीर जी- “अवश्य अवश्य, मेरी शरण में आए हो तो सब शुभ ही होगा| ज्ञान भी मिलेगा और महान भी बनोगे| तुम्हारी हर जिज्ञासा का समाधान होगा|” फिर उन्होने घड़ी पर निगाह डाली और बोले – “तुम थोड़ी देर मेरे साग सब्जी वाले बगीचे में टहलो, मैं जरा मैकडोनल्ड से हो आऊँ, बच्चे जिद किए हैं|” भावेश अन्य शिष्यों के साथ पीछे के बगीचे में चला गया और गुरुजी बर्गर खाने चले गये| बगीचे मे बहुत सारी साग सब्जियाँ लगी थीं और सर्वहारा वर्ग के लोग घास आदि की निराई कर रहे थे| श्रमिकों से बातचीत से पता चला कि गुरुजी उनकी दुख तकलीफ के प्रति बहुत सजग रहते हैं| जैसे ही उन्हे पता चलता है कि सब्जियाँ बढ़ गयी हैं या टमाटर आदि में फल आ गये हैं और उसकी वजह से पौधे भारी हो गये हैं जिससे निराई मे दिक्कत आ रही है तो उनसे रहा न जाता| वो स्वयं आते और पूरे बगीचे को हल्का करके वापस जाते| उनके हृदय मे सर्वहारा वर्ग के प्रति इतनी करुणा देख भावेश का उनके प्रति आदर से भर गया| दो घंटे बाद गुरुजी वापस आये और उन्होने भावेश को पास बुलाया|

भावेश को पूरा घर आश्रम जैसा प्रतीत हो रहा था और क्रांतिवीर जी महान तपस्वी| गुरु जी प्रति वह आदर भाव से भर गया और सीधे उनके चरणों में जाकर बैठ गया| अब वह गुरु के चरणों मे बैठा अपनी जिज्ञासाओं का शमन कर रहा था| गुरु कृपालुता के सागर हैं और शिष्य विनम्रता का| उनके बीच संवाद हो रहे हैं|
क्रांतिवीर जी- “हाँ वत्स, पूछो क्या पूछना है|
भावेश – “लेखन की बारीकियाँ सीखना चाहता हूँ|
क्रांतिवीर जी- “पहले तो ये बताओ कि किस विषय पर लिखना चाहते हो?
भावेश- “जी, प्रेम पर”
गुरुजी के मस्तक पर कई लकीरें तन गयीं| “प्रेम! ये भी कोई विषय है| हर तरफ लूट, भ्रष्टाचार, बेईमानी , शोषण और दमन का बोलबाला है और तुम्हें प्रेम की सूझ रही है| ये प्रेम का साहित्य पूंजीवादियों का खिलौना है जिससे वो भूखी-नंगी जनता को भुलावे और छ्लावे मे रहना चाहते हैं| ऐसा लगता है कि तुमने लेखन के मेरे बनाये अष्ट महासूत्र नहीं पढ़े हैं| वो पढ़े होते तो ऐसे मूर्खतापूर्ण विषय पर लिखने की बात ही न करते|
भावेश- “ये कैसा महासूत्र है गुरुवर?
क्रांतिवीर जी- “ये मेरी वर्षों की साधना का प्रतिफल है, वत्स| इससे उपयोग से कोई भी व्यक्ति महान लेखक बन सकता है| आज साहित्य जगत में जितने भी बड़े बड़े लोग हैं सबने इसी महासूत्र की प्रेरणा से सफलता पाई है| तुम बाकी के प्रश्न करो फिर मैं एक साथ ही सारे सूत्र बताता हूँ|
भावेश (गुरु के सम्मान में थोड़ा और नत होते हुये)– “ धन्य हो गुरुजी, आप ही मुझे महान लेखक बना सकते हैं| अब आप कृपा करके मुझे ये बतायें कि महान रचनाकार बनने का मार्ग क्या है?”
क्रांतिवीर जी – “देखो बेटा, मार्ग तो कई सारे हैं पर अधिकतर मूर्खतापूर्ण और कष्टकारी हैं अतः सब न बताकर तुम्हें वो मार्ग बताता हूँ जिससे आज के दौर में सबसे जल्दी महान रचनाकार बना जा सकता है|”
भावेश अधीर हो उठा|
भावेश – “मैं बड़ा उत्सुक हूँ, जल्दी बताइये गुरुजी.....”
क्रांतिवीर जी – “इतना अधीर न बनो शिष्य| मेरी बात ध्यान से सुनो, साहित्य में पैर जमाने का जो सबसे जमा जमाया और असरदार तरीका है वो ये है कि हमेशा शोषितों वंचितों की बात करो, जल जंगल और जमीन की बात करो, दलित और नारी के नाम पर कुछ भी लिख मारो| इनके नाम का इस्तेमाल करते रहोगे तो यदि तुम कचरा भी लिखोगे तो भी हम लोग उसे ताजमहल ही कहेंगे| और अगर हम कहेंगे तो फिर तो सबको कहना पड़ेगा| कपड़े में धोती-कुरता, कुरता-पायजामा या जींस-कुरता पहनो और साथ में एक झोला भी टाँग लो| फिर दो तीन किलोमीटर दूर से ही लोग समझ जायेंगे कि ये लेखक है|”
भावेश - “पर गुरुजी, ऐसा तो सभी लिखते हैं| आजकल का हर लेखक, कवि यही सब लिख रहा है| मैं नया क्या करूंगा? कथ्य मे नवीनता भी तो हो?”
क्रांतिवीर जी – “सब करते हैं तो क्या हुआ? तुम क्या आसमान से आए हो जो सबसे अलग रहोगे? सब दाँत साफ करते हैं तो तुम नहीं करोगे क्या?”
भावेश – “अरे गुरुजी, नाराज मत होइये| मैं तो बस ऐसे ही कह रहा था| आप जैसा कहेंगे वैसा ही लिखूंगा|
क्रांतिवीर जी – “शुक्र मनाओ कि तुम अच्छे गुरु के समक्ष हो नहीं तो अगर “फलाना” गुरु के मठ मे होते तो अब तक दुई थपरा (दो थप्पड़) पा भी चुके होते|
गुरुजी मन ही मन में सोच रहे हैं कि “फलाना” का मठ तो मेरे वाले से भी बड़ा होता जा रहा है, इसको किसी जुगत से निपटाना पड़ेगा| सारे समय विचारधारा के लिये मरें हम और मलाई खाये “फलाने” |
फिर प्रकट मे भावेश से – “पहले ये बताओ कि तुम्हें कवि बनना है या लेखक?
भावेश – “आप दोनों के बारे में थोड़ा-2 बतायें, जो आसान होगा वही बनूँगा|
क्रांतिवीर जी – “अरे सब आसान है, तुम जो कहो वो बना दूँ, मेरे रहते कैसी चिंता| जिन लोगों को पहले प्रशिक्षण दे चुका हूँ वो तुम्हारी प्रसंशा के गीत गायेंगे और धीरे-धीरे तुम स्थापित साहित्यकार बन जाओगे|
  अच्छा, अब तुम्हें अपने अष्ट महासूत्र बता दूँ जिन्हें अच्छी तरह गांठ बाँध लेना, ये पूरे लेखकीय जीवन में काम आयेंगे| 
फिर गुरु जी ने जो अष्ट महासूत्र का ज्ञान दिया, उसका सार कुछ यूं है :
“अगर तुम्हें कवि बनना है तो उसके सिद्धान्त ये रहे -

1- हे वत्स, लोहे जैसे सूखे पैराग्राफ को चमकदार सोने जैसी कविता में बदल देने वाला ये प्रथम सूत्र सुनो- “जो कुछ भी अनाप शनाप दिमाग में आये उसे एक पैराग्राफ में लिख मारो, फिर उसमें विराम चिन्हों का अविराम इस्तेमाल करो| इससे उस पैराग्राफ के खंड खंड हो जायेंगे और हर खंड कविता की एक पंक्ति के नाम से जाना जायेगा|”
2- वत्स, कविता को बौद्धिक बनाने वाले द्वितीय सूत्र का श्रवण करो- “ऐसा लिखो कि तुम्हारे अलावा किसी को समझ न आए| कभी कभी तो तुम्हें भी समझ न आये कि पिछले महीने लिखी इस कविता का क्या अर्थ है|
3- अब ये कविता के सौंदर्य बढ़ाने वाले सूत्र को मन लगाकर सुनो – “सा, वाला, जैसा आदि शब्दों का अतिशय प्रयोग करो|”
4- यह चतुर्थ सूत्र कविता में चमत्कार पैदा करने के लिए है| कोई मानक हिंदी शब्दकोश ढूंढो और उसमें उपस्थित अति कठिन शब्दों की  सूची तैयार करो| साथ ही देशज गालियों की भी एक सूची बनाओ| फिर इन दोनों को एक साथ मिलाकर प्रयोग करो| इससे लेखन बड़ा ही चमत्कारिक और दीर्घकालिक हो जाता है|”
5- सब पुराना लिखकर भी नयी पीढ़ी का कवि कहलाने का तरीका इस पंचम सूत्र में है| “सब कुछ नया नया लिखो, नया दिन, नई सुबह, नई शाम, नई कार, नया तौलिया, नया कुर्ता, नया चश्मा, नयी मुसीबत, नया सरदर्द आदि”
6- कवि को धर्मनिरपेक्ष घोषित करने वाला यह षष्ट सूत्र सुनो – “धर्म को जितना गरिया सकते हो गरियाओ, देवी देवताओं, धार्मिक प्रतीकों आदि की खूब खिल्ली उड़ाओ| पर इतना ध्यान रहे कि सिर्फ हिन्दू धर्म और उन्हीं के देवी देवता, बाकियों का मजाक उड़ाओगे तो बाकायदा कूंट देंगे और मैं भी कुछ न कर पाऊँगा|”
7- ये सप्तम सूत्र नारीवाद की क्रान्ति का नारा बुलंद करता है| तुम तो पुरुष हो फिर भी बता देता हूँ कि यदि नारीवादी कविता लिखनी हो या किसी नारी को कविता लिखनी हो तो कुछ शब्द डालने से कविता ज्यादा वजनदार और प्रभावी हो जाती है जैसे स्तन, लिंग, बलात्कार, योनि, मासिकधर्म, संभोग, हवस, हस्तमैथुन| ये क्रान्ति के स्वर हैं|
8- आठवाँ और सबसे महत्त्वपूर्ण सूत्र यह है कि प्रेम की कवितायें बिलकुल न लिखना| तुम क्रांति के सिपाही हो| प्यार मुहब्बत की हवाई बातों से तुम्हारा कोई मतलब नहीं होना चाहिए|” इस सूत्र का पालन हर हाल में होना चाहिये| इन सभी महासूत्रों का यदि विधिविधान से पालन किया जाये तो किसी गधे को भी महाकवि बनने से कोई नहीं रोक सकता|
इति श्री कविता अष्ट महासूत्रम ||

“अगर तुम्हें लेखक बनना है तो उसके सिद्धान्त ये रहे -
1-  बड़े बड़े और लच्छेदार वाक्य लिखना सिखाने वाला यह प्रथम सूत्र सुनो – “कुछ भी लिखते जाओ और विराम चिन्ह लगाना भूल जाओ|”
2- शब्द चयन की कुशलता सिखाने वाला द्वितीय सूत्र- “ऐसे शब्द प्रयोग करो कि बिना शब्दकोश के पूरा समझ न आये|”
3- विषय चयन में मार्गदर्शक यह तृतीय सूत्र – “कहानी की पृष्ठभूमि हमेशा संघर्ष की रखो, जमीन छिनना, जंगल उजड़ना आदि| बाकी विषयों से आँख मूँद लो|”
4- भीषण मारक क्षमता वाला और अति प्रभावशाली चतुर्थ सूत्र सुनो वत्स – “यदि कोई नारी पात्र हो तो उसका दैहिक शोषण करवाओ| बलात्कार से नीचे का दैहिक शोषण कहानी में लिखने लायक नहीं है| सीधे बलात्कार करवाओ| अगर वो नारी पात्र दलित, आदिवासी या ग्रामीण है तो सामूहिक बलात्कार दिखाओ| इससे कथा में अत्यधिक प्रभाव आता है|”
5- व्यवस्था को चोट पहुंचाने के लिये सहायक पंचम सूत्र – “नायक गरीब और फटेहाल हो और व्यवस्था से परेशान होकर बंदूक उठा ले| कोशिश करो कि उसके माँ-बाप, भाई बहन आदि को व्यवस्था द्वारा मरते हुये दिखा सको|”
6- आत्मविश्वास का संचार करने वाला यह षष्ट सूत्र आजीवन याद रखना – “पाठक को मूर्ख समझो| तुम जो लिखते हो वही परम सत्य है, मन में ऐसा विचार करो|”
7- चर्चित बने रहने की कुशलता सिखाने वाला यह सप्तम सूत्र सुनो वत्स – “अपने समकालीन रचनाकारों से बेवजह झगड़े करते रहो, उन्हें गरियाते रहो| इससे वे तुम्हें हमेशा याद रखेंगे|”
8- अब यह अंतिम और सर्वाधिक आवश्यक सूत्र – “कभी भूले से भी प्रेम आदि विषयों पर मत लिखो| ये महान लोगों के विषय नहीं हैं|”
इति श्री गद्य अष्ट महासूत्रम ||

भावेश ने प्रतिवाद किया कि प्रेम तो शाश्वत मूल्य है, इस पर तो लिखना चाहिए| क्रांतिवीर जी ने उसे समझाया कि भले ही ये शाश्वत मूल्य है पर हम जिस काल खण्ड में जी रहे हैं वो बड़ा ही विषम है और ऐसी कठिन स्थितियों मे प्रेम की बात करना ही मूर्खता है| रक्तपात की बात करो| क्रान्ति की बात करो| सब कुछ लाल कर दो| बड़ा और महान लेखक व कवि बनने का रास्ता यही है|
भावेश ने दूसरा सवाल पूछा, “गुरुजी, आपने वजन की बात की| ये वजन क्या होता है?
क्रांतिवीर जी – “वजन यानि कि कविता या गद्य की दुरूहता बढ़ाना| आसान शब्दों मे इसे ऐसे समझो कि यदि तुम्हारी रचना साधारण है तो वो हजार लोगों को समझ में आ रही है, उसमें थोड़ा वजन आया तो वो सिर्फ 500 लोगों को समझ आएगी, वजन और बढ़ा तो फिर वो 100 लोगों को समझ आएगी यानि जैसे जैसे वजन बढ़ता जाएगा, समझने वाले घटते जायेंगे|
भावेश - “फिर तो हमें कम वजन की रचना लिखनी चाहिये|
क्रांतिवीर जी -  “अरे नहीं, तुम कौन सा सबके लिये लिख रहे हो| सबके लिये लिखना और महान लेखक होना, इन दोनों के बीच जो अंतर है वो जुगाड़ का है| तुम बस ऐसा लिखो कि वो मुझे समझ में आए, फिर वो 500 लेखकों और समीक्षकों के हाथ में जाये और तुम चकाचक महान लेखक | पुरस्कार फुरस्कार का भी जुगाड़ हो जाएगा|”
भावेश – “अच्छा ! ये वजन कैसे बढ़ाया जाये?
क्रांतिवीर जी – “वजन बढ़ाने के भी कई रास्ते हैं, भारी भरकम शब्दावली उपयोग करना, अंट शंट उदाहरण देना और कुछ रेडीमेड शब्द भी हैं जिनके कविता / लेख में शामिल होते ही वजन बढ़ जाता है जैसे पूंजीवादी, बुर्जुआ, शोषक, साम्राज्यवाद, बाजारवाद, रूस, चीन, शोषित, वंचित, पीड़ित, जन, अभिजात्य, हाशिया, साम्यवाद, नवउदारवाद, सर्वहारा, संघर्ष, वर्ग चेतना, वर्ग संघर्ष, गोलियां, नक्सल, धनपशु, अधिकार, क्रांति, विद्रोह आदि|
और यदि कविता है तो उसमें एक दो पंक्तियाँ ऐसी हों, तुमने लूट लिये हमारे जल जंगल और जमीन, आदिवासी औरतों की पसरी लाशें और उनके बिखरे स्तन आदि ”
भावेश – “पर यह तो वामपंथ की शब्दावली है और लेखक का तो कोई पंथ नहीं होता|”
क्रांतिवीर जी – “अरे मूर्ख, तो क्या मैं तुझे तबसे रामचरितमानस सुना रहा हूँ| कान खोल कर सुन, लेखक सिर्फ और सिर्फ वामपंथी होता है| और किसी को हम लेखक मानते ही नहीं| तुम लिख लिख के मर जाओ, हम लेखक मानेंगे ही नहीं तुमको जब तक तुम मार्क्स के आगे शीश न झुकाओ| बिना मार्क्स लेनिन का सेवन किये साहित्य की उत्पत्ति हो ही नहीं सकती| यदि तुम्हें एक महान लेखक बनना है तो सुबह मार्क्स और एंगल्स की पूजा किये बिना उठो नहीं| दास कैपिटल तुम्हारी बाइबल हो और चे ग्वेरा  की सिगरेट तुम्हारा पवित्र निशान| ये जो मेरा लाल चेहरा देख रहे हो न, ये ऐसे ही लाल नहीं है बल्कि माओ बाबा का आशीर्वाद है|”
भावेश – “पर मेरी किताबें कौन खरीदेगा? ऐसे बासी शब्द और बोझिल वाक्य कौन पढ़ना चाहेगा?”
क्रांतिवीर जी (गरम होते हुये) – “तू पूरा पगलेट है क्या बे? तबसे बकलोली बतिया रहा है| किताबें बेचनी किसको हैं? बाजारवाद फैलाएगा तू? तुम्हें क्या लगता है कि खाली किताब बेचकर जिंदगी चल जाती है? अरे तुझे पैसे कमाने हैं तो उसके और भी रास्ते हैं पर किताब बेचकर पैसे, तौबा तौबा| तुझे तो बाजारवाद के कीड़े ने काटा है| अरे इन किताबों को हम किसी सरकारी पुस्तकालय के हवाले करेंगे और चूंकि पुस्तकालयों मे सरकार का पैसा लगेगा और सरकार हमारे पैसे से चलती है तो हम अपना ही पैसा सरकार से वापस लेंगे|”
भावेश का दिल नहीं माना इस तर्क से तो फिर उसने पूछा – “पर मैं इसे खुले बाजार में बेचना चाहता हूँ|
क्रांतिवीर जी – “अरे जाहिल, तुम पहले वाम को समझो, फिर ये बेचने खरीदने की बात भूल जाओगे|”
भावेश (इस बार थोड़ा क्रोध में) – “क्या खाक समझूँ, इस वाम वाम के चक्कर में हिंदी साहित्य का झंडू बाम हो गया है|

 पूंजीवादी झंडू बाम शब्द सुनते ही गुरु जी के तन बदन में आग लग गयी| क्रोध से उनका पूरा बदन लाल हो गया| गुरु ने उसे आग्नेय नेत्रों से घूरा और एक एक शब्द पर ज़ोर देते हुये बोले – “बेटा, तुमसे ना हो पायेगा| हमें तुम्हारे लक्षण बिलकुल ठीक नहीं लग रहे, तुमसे ना हो पायेगा|

उस दिन से आज तक हिन्दी साहित्य इस इंतजार में है कि ये “तुमसे ना हो पायेगा” का जवाब “हमने कर दिखाया” से देने वाले युवा आगे आयें| और वो शिष्य ऐसे गुरुओं से सचेत रहे|


बुधवार, 1 मई 2013

बेड़ियाँ लाओ बेड़ियाँ

जन्म लिया मैंने स्वतंत्र,
प्रकृति की सुखद गोद में,
जन्मते ही पाया
बन्धनों में जकड़ी माँ,
बन्धनों में लिपटा बाप
और ये बंधनप्रिय समाज,
देखी धर्म, जाति की श्रेणियां|

फिर जब आया समय विज्ञान का,
व्यक्ति के उत्थान का,
ज्ञान के सम्मान का,
बन्धनों के अवसान का |
तब पाया मैंने कि
मैं तो किंचित अविकसित हूँ,
मुझ पर संकट है पहचान का|

आह, छूटी जा सब बेड़ियाँ
आह, मिटती जा रही सब श्रेणियां |

व्यक्ति होकर जीने में मुझ पर आफत है
क्योंकि भीड़ में छिपने की मेरी आदत है|

आओ, भीड़तंत्रियों आओ,
आओ, फिर से बनाओ नयी श्रेणियां,
पहनाओ मुझे फिर से नयी बेड़ियाँ|
आदत है मुझे, छूटती ही नहीं
जल्दी करो जल्दी, बेड़ियाँ लाओ बेड़ियाँ||

बुधवार, 20 मार्च 2013

खूबसूरत फूल

खूबसूरत फूल

वो पौध, जो लगायी थी तुमने,
पौध प्रेम की, पौध समर्पण की,
वो पौध अब बड़ी हो रही है

ख्वाहिशों की कोपल अब वृक्ष बन चुकी है,
फ़ैल चुकी हैं उसकी शाखाएं,
जिनसे लटकते हैं कच्चे ख्वाब
उड़ते है पंछी जिनपे तुम्हारे नाम के|

जड़ें इसकी मेरे अंतस में धंसी हैं,
सींचता हूँ जिन्हें मैं अपनी चाहत से
इसके पत्ते भी कितने हसीन हैं,
जैसे हर पत्ते पर तुम्हारा नाम लिखा है|

अब तो इस पर फूल भी आ गए,
फूल, मुहब्बत के फूल
हर फूल बुलाता है मुझे,
तुम्हारी परछाईं दिखाता है मुझे

और मैं हर फूल में सिर्फ तुम्हे ढूंढता हूँ
क्यूंकि तुम ही तो हो
मेरा सबसे कीमती फूल,
सबसे मोहक पुष्प,
सबसे खूबसूरत फूल

शनिवार, 16 मार्च 2013

कभी सोचा न था|

तुम इतने करीब आओगे,
कभी सोचा न था

जब हमने शुरू किया था सफर,
बिलकुल अजनबी की तरह
अनजान राहों पर हम चले
सफर में बातें भी हुईं,
बातों से बढ़ा अपनापन
पर तुम इतने अपने हो जाओगे,
कभी सोचा न था|

ये राहें भी पहेली हैं,
साथ चलने से सुलझ जाती हैं|
मैंने कहा आओ जिंदगियां बदलते हैं,
मेरा जीवन तुम जियो
तुम्हारा जीवन मैं जियूं
मैं जी पाया या नहीं, पता नहीं
पर तुम यूं मुझको जी पाओगे
कभी सोचा न था|

सोमवार, 4 मार्च 2013

गायब होती पगडंडी

"गायब होती पगडंडी और हावी होती सड़क,
गायब होती हमारी सादगी, हावी होती तड़क भड़क

मिट्टी खिसकती गयी नीचे से आ गयी कंक्रीट
गुम होने को आया है, साथी पथ का गीत "

सोमवार, 23 अप्रैल 2012

अभिशप्त






 
कृषक तू अभिशप्त है , तड़पने को
धूप में जलने को, पाई-पाई जोड़ने को
फिर उसे खाद बीज में खर्च करने को
हर रोज अपना खून पसीना बहाने को,
पर उसका नगण्य प्रतिफल पाने को
हे कृषक तू अभिशप्त है

तू अभिशप्त है
क्योंकि तू गाँव में रहता है
तू देहाती है, तू गँवार है
मानवी जोंकों से अनभिज्ञ तू
उनसे शोषित होने को लाचार है

तू अभिशप्त है
क्योंकि तू अपने बच्चों को
नहीं बनाता काला अंग्रेज
नहीं लगाता उन्हें कृत्रिमता की लत
नहीं बदलता उनका भेस

तू अभिशप्त है
क्योंकि तू सिर्फ फसल उगाता है
तू बाजार नहीं बनाता अपनी फसल का
फसल तेरी होती है, दाम किसी और का
और तू हाथ मलता रह जाता है

तू अभिशप्त है
गरीबी में जीने को, बस खटते रहने को
ताकि पूंजीपति अमीरी में जी सकें
ताकि ये जोंकें आराम कर सकें
ताकि ये तुम्हारी जमीनें छीन सकें
उन पर जबरदस्ती आवास बना कर बेंच सकें

तू अभिशप्त है
क्योंकि तेरा विरोध भी मुखर नहीं है
क्या खाकर तू विरोध करेगा
विरोध पर गोलियाँ मिलती हैं तुझे
तेरा कुचला हुआ सर "आगरा" या "टप्पल" में कहीं है

तू अभिशप्त है
क्योंकि तू मीडिया के लिये कोई  खबर नहीं है
कितनी भी कर ले आत्महत्यायें "विदर्भ" हो या बुन्देलखण्ड
कोई नहीं पसीजेगा इतना याद रख
क्योंकि तू नेता नहीं, डाक्टर या इंजीनियर नहीं है

तू अभिशप्त है
बाजार का मोहरा बनने को,
चुनावी मुद्दा बनने को,
बीबी के लिये नाम का आसरा बनने को,
बच्चों के लिये झुका हुआ कंधा बनने को
हे कृषक तू अभिशप्त है

सोमवार, 6 फ़रवरी 2012

मील के पत्थर

ना तो मैं हताश हूँ, ना ही मैं निराश हूँ|
पर अपनी कमरफ्तारी पर, थोड़ा सा उदास हूँ||

कुछ कमी है रौशनी की अभी, रास्ते भी कुछ धुंधले से हैं|
कभी दूर हूँ मैं रास्ते से, तो कभी रास्ते के पास हूँ ||

कर रहा है प्रश्न निरंतर, ये विचारों का अस्पष्ट प्रवाह|
किसी की तलाश में हूँ मैं, या खुद किसी की तलाश हूँ ||

गतिमान है प्रबल संघर्ष, कामनाओं के ज्वार-भाटे से|
इच्छाओं पर अंकुश है मेरा, या कामनाओं का दास हूँ||

चेहरा तो एक ही है मेरा, इन्सान बहुत से हैं अंदर|
कभी कृष्ण की मुरली हूँ, कभी कंस का अट्टहास हूँ||

यूँ तो आम आदमी हूँ, इक आम जिन्दगी जीने वाला|
पर कुछ लोग ऐसे भी हैं, जिनके लिये मैं खास हूँ||

माना कि कदम धीमे हैं, पर सफर अभी जारी है|
इसमें कोई आश्चर्य नहीं, कि मील के पत्थर तलाश लूँ||

गुरुवार, 19 जनवरी 2012

सूखे दरख़्त







जंगल अब कुछ बदल रहा है ,
अंदर ही अंदर कुछ चल रहा है ,
एक हिस्सा खुद को सहेज रहा है ,
परिवर्तन की बयार में संभल रहा है |
दूसरा हिस्सा हावी होने के लिए ,
आसमान को छूने के लिए
शिद्दत से मचल रहा है ||

एक हिस्सा है सूखे दरख्तों का ,
दूसरा उनके बाल-बच्चों का |
एक हिस्सा है पुराने , जीर्ण वृक्षों का ,
दूसरा उनसे पनपे नए पौधों का ||

सूखे दरख्त , नए वृक्षों के अनुसार
बोझ हैं , समस्या हैं , प्रगति में बाधक हैं |
रुढियों और परम्पराओं से चिपके हुए
ये प्रगति-मार्ग के अवरोधक हैं ||


नयी पौध इसी उधेड़बुन में परेशान है
कि इन सूखे दरख्तों की समस्या का क्या समाधान है |
नयी पौध में कुछ पौधे तो, अत्यधिक विद्वान हैं
उनके पास इस विकट समस्या का भी समाधान है ||

ये समाधान कुछ यूं है कि
इन्हें इनके हकों से वंचित कर दो , महरूम कर दो ,
सूखे तो हैं ही , झुलसने पर भी मजबूर कर दो ||

एक नई जगह बनाओ ,
बनाओ एक नई व्यवस्था ,
जहाँ सभी सूखे दरख्त ,
मिलकर रहें इकठ्ठा ||

हरियाली के बीच में से ,
इन ठूंठों को हटा दो ,
इन्हें मुख्यधारा से दूर ,
कहीं ठूँठघर में बसा दो ||

इन इरादों की भनक बुजुर्गों तक भी पहुंची
कुछ चिंतित हुए , कुछ विस्मित हुए ,
कुछ को लगा यह दोष है भाग्य का
तो कुछ परवरिश के तौर-तरीकों पर शंकित हुए ||

नयी पौध भूल गई है शायद ,
कभी इन सूखे दरख्तों में भी हरियाली थी |
भूल रहे हैं कि जिसकी वो शाख हैं
कभी उसमें भी हरे भरे पत्ते थे ,
जिंदगी की लाली थी ||

कभी उसकी छाँव में ही ,
इनका बचपन बीता था |
कभी उसी ने इनको अपने ,
स्नेह अश्रु से सींचा था ||

सर्दी , बारिश , आँधी आदि से
उसने ही इन्हें बचाया था ,
एक नन्हे से बीज को ,
एक विशाल वृक्ष बनाया था |
जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियों में भी
कैसे डटे रहें दृढ़ता से ,
ये भी उसने ही सिखलाया था ||

भूल रहे हैं कि उस सूखे दरख़्त की जड़ों में
आज भी कोई जिन्दा है |
शायद नयी पौध के वैचारिक पतन पर
खुद को दोषी मान कर
खुद पर ही शर्मिंदा है ||