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रविवार, 27 सितंबर 2015

बने रहो "भैया" और "बिहारी"

क्या इस बात पर कभी गौर किया है कि पूरे देश में हम यूपी बिहार वाले ही इतनी हेय दृष्टि से क्यूँ देखे जाते हैं. जब किसी का मन होता है यूपी बिहार वालों को गरिया लतिया लेता है. उसके बाद भी भर भर के हम लोग हर राज्य में पहुंचे रहते हैं. कभी सोचा है क्यों ?

हम समाजवाद, बहुजनवाद, मंडल और कमंडल के सताये हुये जीव हैं. ये जो हम गली गली घूमते हैं किसी शौक में नहीं घूमते. शौक में घूमते तो किसी में हिम्मत  न होती कि चूं कर सके. हम इसलिये भटकते हैं क्योंकि हमारे गृह राज्यों में हमारा कोई ठौर ठिकाना नहीं है. हम घर से १००० - २००० किलोमीटर दूर रहने के लिये अभिशप्त हैं. हर किसी को अपने घर से मोह होता है. इतना आसानी से नहीं छोड़ा जाता. पर छोड़ना पड़ता है.

इस समाजवाद, बहुजनवाद, मंडल और कमंडल की राजनीति में किसका भला हुआ और किसका बुरा हुआ वो एक अलग विषय है पर एक बात तो तय है कि उप्र और बिहार आज भी कमजोर और लाचार राज्य हैं, बुनियादी सुविधाओं के नाम पर कुछ चमकती हुई सड़के हैं पर उतने से कुछ नहीं होता. बाकी राज्यों ने अगर खुद को सुधारा है, बुनियादी सुविधाओं का ध्यान दिया है और अपने यहाँ व्यवसायियों को आकृष्ट किया है तो उप्र बिहार ऐसा क्यों नहीं कर सकते.

 युवाओं को अपने गृहराज्य में ही रोजगार मिले इसके लिये आवश्यक है कि वहाँ पर रोजगार देने वाली कम्पनियां भी मौजूद हों. पर कम्पनियाँ क्यों नहीं आना चाहतीं. व्यवसाय के लिये जो सबसे जरुरी तत्व हैं वो उप्र  बिहार में बहुत बुरी हालत में हैं  -

१- अच्छी यातायात व्यवस्था
२- अच्छी कानून व्यवस्था
३- बिजली पानी की समुचित आपूर्ति
४- महिला सुरक्षा
५- बढ़िया मोबाईल और इंटरनेट कनेक्टिविटी
६- नवोन्मेष का सम्मान और सत्कार
७- सरकार और प्रशासन का सहयोगी रुख

इनमें से किसी भी मोर्चे पर उप्र बिहार कर्नाटक, महाराष्ट्र, गुजरात, तमिलनाडू आदि के सामने नहीं ठहरते. तो फिर कोई व्यवसायी अपना नुकसान कराने क्यूँ आयेगा. अगर हम ये करने में समर्थ नहीं हैं तो एडोब आगरा, गूगल गोरखपुर, माइक्रोसॉफ्ट पटना, ऑरेकल आरा, फ्लिप्कार्ट फ़ैजाबाद का सपना बस सपना ही रहेगा.

अगर हम चाहते हैं कि हमारी अगली पीढ़ियों का हाल भी हमारे जैसा न हो तो हमें अपनी सरकारों पर इन बातों के लिये दबाव डालना होगा. नहीं तो फिर बने रहो "भैया" और "बिहारी"
 

बुधवार, 25 मार्च 2015

बिहार में नक़ल की तस्वीर


बिहार की ये तस्वीर सोशल मीडिया पर बहुत वाइरल हो रही है| और बिहार की शिक्षा व्यवस्था का मखौल उड़ाया जा रहा है| मेरी अपनी राय इस सामान्यीकारण के कहीं विपरीत है|

१ - तस्वीर के मुताबिक़ विद्यालय के कर्मचारी इसमें सम्मिलित नहीं हैं| यदि वे सम्मिलित होते तो किसी को छत पर चढ़ने की जरूरत न पड़ती| रुपये पैसे ले देकर अंदरखाने में ही सेटिंग हो जाती|

२ - पर्चियाँ अंदर पहुँच रही हैं कि नहीं ये कक्ष निरीक्षक पर निर्भर है| कक्ष निरीक्षक को कुछ पता हो न हो इतना जरूर पता है कि जो लोग अपनी जान पर खेलकर यहाँ पर पर्ची ला रहे हैं वो उसकी भी जान से खेल सकते हैं| कोरे आदर्शवाद से कुछ नहीं होता| उसको भी घर वापस जाना है|

३ - स्टाफ़ की कमी और स्थानीय गुंडा तत्वों का डर भी विद्यालय प्रशासन को सख्त कार्रवाई कर पाने में रुकावट बन सकता है| स्थानीय पुलिस और उड़नदस्ते की आवश्यकता है|

४ - नक़ल नक़ल का शोर मचाने से पहले हमें ये भी सोचना होगा कि आखिर वे कौन से हालात हैं कि अभिभावक अपने बच्चों को गलत माध्यमों से पास करा रहे हैं और इतना ही नहीं अपनी भी जान जोखिम में डाल रहे हैं| ये हमारी शिक्षा व्यवस्था की दीनता की तस्वीर है, नक़ल की नहीं|

५ - नंबर गेम| आजकल लगभग हर प्रतियोगी परीक्षा या नौकरी के लिये नम्बर्स और ग्रेड्स के पैमाने तय होते हैं| जैसे न्यूनतम ७० %, न्यूनतम फर्स्ट क्लास आदि|
अब जो छात्र ४० - ५९ % वाला है वो क्या करे? वो तो न पास हुआ न फेल| उसके लिये क्या रास्ता है? क्या उसको सेकण्ड या थर्ड डिवीजन लाने के बजाये फेल हो जाना चाहिये था?

६ - जब सिर्फ ६०+ की ही स्वीकार्यता है और उससे नीचे वालों को सरकारी / गैरसरकारी संस्थान न तो आगे पढ़ने लायक समझते हैं और न ही नौकरी पाने लायक समझते हैं तो ऐसे हालातों में कोई भी चाहेगा कि येन केन प्रकारेण उसका पुत्र / पुत्री ६०+ ही रहे| भले ही उसे ये अच्छी तरह पता है कि उसके पुत्र / पुत्री में योग्यता ६० - वाली है|

८ - असल मसला नकल और उस पर रोक लगाने का नहीं है बल्कि इस सड़ी हुई शिक्षा को बदलने का है| एक ऐसी व्यवस्था की आवश्यकता है जिसमें निर्बल का भी सम्मान हो, जो सह अस्तित्त्व को बढ़ावा दे| एक ऐसी रोजगार व्यवस्था जो कम ग्रेड्स वालों को भी इंसान समझे, उनमें भी हुनर है और काबिलियत है, इस पर विश्वास करे|

शिक्षा और रोजगार व्यवस्था में परिवर्तन किये बिना सिर्फ इस तस्वीर का मजाक उड़ाना बेमानी है| ऐसी तस्वीरों को नहीं देखना है तो मूल कारण को ही समाप्त करना होगा|