रविवार, 27 सितंबर 2015

ऐ गनपत, चल दारु ला

और जब मैंने गणपति विसर्जन के डीजे में "ऐ गनपत, चल दारु ला" सुन लिया तब मुझको पक्का यकीन हो गया कि हमें विश्वगुरु बनने से कोई नहीं रोक सकता।
जरा महसूस करिये कितनी भक्ति डूबी है इस गीत में। भगवान और भक्त एकाकार हो गये हैं। भगवान शोषित वर्ग के प्रतिनिधि बन गये हैं। इस अवतार में वो बार टेंडर के स्वरूप में उतरे हैं। अपने भक्तों को सोमरस का वितरण करते हैं।
भक्त भगवान का दास नहीं है। आध्यात्मिक रूप से वो इतना उन्नत है कि भगवान को सीधा आदेश देता है कि ऐ गनपत, चल दारु ला यानि जा सोमरस लेकर आ। भक्त आधुनिक है उसे पता है कि भगवान से क्या क्या काम लिया जा सकता है। कोई वर्ग भेद नहीं है, कोई कर्म भेद नहीं है। महफ़िल सजी है, कभी साकी पिलाती थी, आज गनपत पिलायेंगे। आहा हा, क्या सुन्दर हिंदुत्व है।
ये जो पवित्र सोमरस है न, बड़े काम की चीज है। हमारे देव और भक्त इस रस के विशेष रसिक रहे हैं। वो तो नाश हो इन अंग्रेजों और म्लेच्छों का जो इसे सर्वसुलभ कर दिया। कालान्तर में सोमरस के भिन्न भिन्न संस्करण आये जिन्हें श्रद्धालुओं ने श्रद्धानुसार कभी शराब कभी बीयर तो कभी दारु कहा।
हे गनपत, इन म्लेच्छों को कभी क्षमा मत करना। पर उसके पहले - ऐ गनपत, चल दारु ला

कोई टिप्पणी नहीं: