क्या इस बात पर कभी गौर किया है कि पूरे देश में हम यूपी बिहार वाले ही इतनी हेय दृष्टि से क्यूँ देखे जाते हैं. जब किसी का मन होता है यूपी बिहार वालों को गरिया लतिया लेता है. उसके बाद भी भर भर के हम लोग हर राज्य में पहुंचे रहते हैं. कभी सोचा है क्यों ?
हम समाजवाद, बहुजनवाद, मंडल और कमंडल के सताये हुये जीव हैं. ये जो हम गली गली घूमते हैं किसी शौक में नहीं घूमते. शौक में घूमते तो किसी में हिम्मत न होती कि चूं कर सके. हम इसलिये भटकते हैं क्योंकि हमारे गृह राज्यों में हमारा कोई ठौर ठिकाना नहीं है. हम घर से १००० - २००० किलोमीटर दूर रहने के लिये अभिशप्त हैं. हर किसी को अपने घर से मोह होता है. इतना आसानी से नहीं छोड़ा जाता. पर छोड़ना पड़ता है.
इस समाजवाद, बहुजनवाद, मंडल और कमंडल की राजनीति में किसका भला हुआ और किसका बुरा हुआ वो एक अलग विषय है पर एक बात तो तय है कि उप्र और बिहार आज भी कमजोर और लाचार राज्य हैं, बुनियादी सुविधाओं के नाम पर कुछ चमकती हुई सड़के हैं पर उतने से कुछ नहीं होता. बाकी राज्यों ने अगर खुद को सुधारा है, बुनियादी सुविधाओं का ध्यान दिया है और अपने यहाँ व्यवसायियों को आकृष्ट किया है तो उप्र बिहार ऐसा क्यों नहीं कर सकते.
युवाओं को अपने गृहराज्य में ही रोजगार मिले इसके लिये आवश्यक है कि वहाँ पर रोजगार देने वाली कम्पनियां भी मौजूद हों. पर कम्पनियाँ क्यों नहीं आना चाहतीं. व्यवसाय के लिये जो सबसे जरुरी तत्व हैं वो उप्र बिहार में बहुत बुरी हालत में हैं -
१- अच्छी यातायात व्यवस्था
२- अच्छी कानून व्यवस्था
३- बिजली पानी की समुचित आपूर्ति
४- महिला सुरक्षा
५- बढ़िया मोबाईल और इंटरनेट कनेक्टिविटी
६- नवोन्मेष का सम्मान और सत्कार
७- सरकार और प्रशासन का सहयोगी रुख
इनमें से किसी भी मोर्चे पर उप्र बिहार कर्नाटक, महाराष्ट्र, गुजरात, तमिलनाडू आदि के सामने नहीं ठहरते. तो फिर कोई व्यवसायी अपना नुकसान कराने क्यूँ आयेगा. अगर हम ये करने में समर्थ नहीं हैं तो एडोब आगरा, गूगल गोरखपुर, माइक्रोसॉफ्ट पटना, ऑरेकल आरा, फ्लिप्कार्ट फ़ैजाबाद का सपना बस सपना ही रहेगा.
अगर हम चाहते हैं कि हमारी अगली पीढ़ियों का हाल भी हमारे जैसा न हो तो हमें अपनी सरकारों पर इन बातों के लिये दबाव डालना होगा. नहीं तो फिर बने रहो "भैया" और "बिहारी"