शहीदे आजम भगत सिंह आज भी युवकों के अनंत प्रेरणास्त्रोत हैं | यह लेख 'साप्ताहिक मतवाला' (वर्ष २,अंक ३८, १६ मई १९२५) में बलवंत सिंह के नाम से छपा था | केवल १७ वर्ष और कुछ महीने की उम्र में हिंदी मे लिखा यह लेख भगत सिंह की भाषा के ओज और लालित्य की एक मिसाल तो है ही ' युवाशक्ति की दिशा बोध के लिए भी एक प्रेरक बिंदु है | इस लेख की चर्चा 'मतवाला' के संपादक आचार्य शिवपूजन सही की डायरी में भी मिलती है |
आचार्य शिवपूजन सहाय की डायरी का अंश (पृष्ठ २८) :
"भगत सिंह ने
'मतवाला'(कलकत्ता) में एक लेख लिखा था ,जिसे सुधार-संवार कर मैंने छापा था और उसे पुस्तक भंडार द्वारा प्रकाशित 'युवक साहित्य'में संग्रहीत भी मैंने ही किया था | वह लेख बलवंत सिंह के नाम से लिखा था | क्रांतिकारी लेख प्रायः गुमनाम लिखते थे | यह रहस्य किसी को ज्ञात नहीं | वह लेख युवक विषयक था | वह लाहौर से उन्होंने भेजा था | असली नाम की जगह
'बलवंत सिंह' ही छापने को लिखा था |"
युवक
युवावस्था मानव जीवन का वसंतकाल है | उसे पाकर मनुष्य मतवाला हो जाता है | हजारों बोतल का नशा छा जाता है | विधाता की दी हुई सारी शक्तियां सहस्त्र धारा होकर फूट पड़ती हैं | मदांध मातंग की तरह निरंकुश , वर्षाकालीन शोणभद्र की तरह दुर्ध्दर्ष , प्रलयकालीन प्रबल प्रभंजन की तरह प्रचंड , नवागत वसंत की प्रथम मल्लिका कलिका की तरह कोमल , ज्वालामुखी की तरह उच्छृंखल और भैरवी संगीत की तरह मधुर युवावस्था है |
जैसे क्रन्तिकारी की जेब में बमगोला , रण रस के रसिक वीर के हाथ में खड्ग , वैसे ही मनुष्य की देह में युवावस्था | १६ से २५ वर्ष तक हाड़ चाम के संदूक में संसार भर के हाहाकारों को समेट कर विधाता बंद कर देता है | युवावस्था देखने में तो शस्यश्यामला वसुंधरा से भी सुन्दर है , पर इसके अंदर भूकम्प की सी भयंकरता भरी हुई है | इसीलिए
युवावस्था में मनुष्य के लिए केवल दो ही मार्ग हैं - वह चढ सकता है उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर या वह गिर सकता है अधःपात के अँधेरे खंदक में | चाहे तो त्यागी हो सकता है युवक , चाहे तो विलासी हो सकता है युवक | वह देवता बन सकता है तो पिशाच भी बन सकता है | वही संसार को त्रस्त कर सकता है , वही संसार को अभयदान दे सकता है | संसार में युवक का ही साम्राज्य है | युवक के कीर्तिमान से संसार का इतिहास भरा पड़ा है | युवक ही रणचंडी के ललाट की रेखा है | युवक स्वदेश की यश दुन्दुभि का तुमुल निनाद है | युवक ही स्वदेश की विजय वैजयंती का सुदृढ दंड है |
अगर किसी विशाल ह्रदय की आवश्यकता हो , तो युवकों के हृदय टटोलो | अगर किसी आत्मत्यागी वीर की चाह हो , तो युवकों से मांगो | रसिकता उसी के बांटे पड़ी है | भावुकता पर उसी का सिक्का है | वह छंदशास्त्र से अनभिज्ञ होने पर भी प्रतिभाशाली कवि है | कवि भी उसी के हृदयारविंद का मधुप है | वह रसों की परिभाषा नहीं जानता , पर वह कविता का सच्चा मर्मज्ञ है | सृष्टि की विषम समस्या है युवक | ईश्वरीय रचना कौशल का एक उत्कृष्ट नमूना है युवक | विचित्र है उसका जीवन | अदभुत है उसका साहस | अमोघ है उसका उत्साह |
वह निश्चिंत है , असावधान है | लगन लग गयी है तो रात भर जागना उसके बाएं हाथ का खेल है , जेठ की दुपहरी चैत की चांदनी है | वह इच्छा करे तो समाज और जाति को उद्बुद्ध कर दे , देश की लाली रख ले , राष्ट्र का मुखोज्ज्वल कर दे , बड़े-बड़े साम्राज्य उलट डाले | पतितों के उत्थान और संसार के उद्धारक सूत्र उसी के हाथ में हैं | वह इस विशाल विश्व रंगस्थल का सिद्धहस्त खिलाड़ी है |
संसार के इतिहास के पन्ने खोल कर देख लो , युवक के रक्त के लिखे हुये अमर सन्देश भरे पड़े हैं | संसार की क्रांतियों और परिवर्तनों के वर्णन छांट डालो , उनमें केवल ऐसे ही युवक मिलेंगे , जिन्हें बुद्धिमानों ने पागल छोकरे अथवा पथभ्रष्ट कहा है | पर जो सिडी हैं वो क्या ख़ाक समझेंगे कि स्वदेशाभिमान से उन्मत्त होकर अपनी लोथों से किले की खाइयों को पाट देने वाले जापानी युवक किस फौलाद के टुकड़े थे |
सच्चा युवक तो बिना झिझक के मृत्यु का आलिंगन करता है , संगीनों के सामने छाती खोलकर डट जाता है , तोप के मुंह पर बैठकर भी मुस्कुराता ही रहता है , बेड़ियों की झंकार पर राष्ट्रीय गान गाता है और फाँसी के तख्ते पर अट्टहासपूर्वक आरूढ़ हो जाता है |
ऐ भारतीय युवक , तू क्यों गफलत की नींद में पड़ा बेखबर सो रहा है | उठ , आँखें खोल , देख , प्राची दिशा का ललाट सिंदूर रंजित हो उठा | अब अधिक मत सो | सोना हो तो अनंत निद्रा की गोद में जाकर सो रह |
तेरी माता , तेरी प्रातःस्मरणीया , तेरी परम वन्दनीया , तेरी जगदम्बा , तेरी अन्नपूर्णा , तेरी त्रिशूलधारिणी , तेरी सिंघवाहिनी , तेरी शस्यश्यामलांचला आज फूट-फूट कर रो रही है | क्या उसकी विकलता तुझे तनिक भी चंचल नहीं करती ? उठकर माता के दूध की लाज रख , उसके उद्धार का बीड़ा उठा , उसके आंसुओं की एक-एक बूँद की सौगंध ले , उसका बेड़ा पार कर और बोल मुक्त कंठ से - वंदेमातरम |