कृषक तू अभिशप्त है , तड़पने को
धूप में जलने को, पाई-पाई जोड़ने को
फिर उसे खाद बीज में खर्च करने को
हर रोज अपना खून पसीना बहाने को,
पर उसका नगण्य प्रतिफल पाने को
हे कृषक तू अभिशप्त है
तू अभिशप्त है
क्योंकि तू गाँव में रहता है
तू देहाती है, तू गँवार है
मानवी जोंकों से अनभिज्ञ तू
उनसे शोषित होने को लाचार है
तू अभिशप्त है
क्योंकि तू अपने बच्चों को
नहीं बनाता काला अंग्रेज
नहीं लगाता उन्हें कृत्रिमता की लत
नहीं बदलता उनका भेस
तू अभिशप्त है
क्योंकि तू सिर्फ फसल उगाता है
तू बाजार नहीं बनाता अपनी फसल का
फसल तेरी होती है, दाम किसी और का
और तू हाथ मलता रह जाता है
तू अभिशप्त है
गरीबी में जीने को, बस खटते रहने को
ताकि पूंजीपति अमीरी में जी सकें
ताकि ये जोंकें आराम कर सकें
ताकि ये तुम्हारी जमीनें छीन सकें
उन पर जबरदस्ती आवास बना कर बेंच सकें
तू अभिशप्त है
क्योंकि तेरा विरोध भी मुखर नहीं है
क्या खाकर तू विरोध करेगा
विरोध पर गोलियाँ मिलती हैं तुझे
तेरा कुचला हुआ सर "आगरा" या "टप्पल" में कहीं है
तू अभिशप्त है
क्योंकि तू मीडिया के लिये कोई खबर नहीं है
कितनी भी कर ले आत्महत्यायें "विदर्भ" हो या बुन्देलखण्ड
कोई नहीं पसीजेगा इतना याद रख
क्योंकि तू नेता नहीं, डाक्टर या इंजीनियर नहीं है
तू अभिशप्त है
बाजार का मोहरा बनने को,
चुनावी मुद्दा बनने को,
बीबी के लिये नाम का आसरा बनने को,
बच्चों के लिये झुका हुआ कंधा बनने को
हे कृषक तू अभिशप्त है
धूप में जलने को, पाई-पाई जोड़ने को
फिर उसे खाद बीज में खर्च करने को
हर रोज अपना खून पसीना बहाने को,
पर उसका नगण्य प्रतिफल पाने को
हे कृषक तू अभिशप्त है
तू अभिशप्त है
क्योंकि तू गाँव में रहता है
तू देहाती है, तू गँवार है
मानवी जोंकों से अनभिज्ञ तू
उनसे शोषित होने को लाचार है
तू अभिशप्त है
क्योंकि तू अपने बच्चों को
नहीं बनाता काला अंग्रेज
नहीं लगाता उन्हें कृत्रिमता की लत
नहीं बदलता उनका भेस
तू अभिशप्त है
क्योंकि तू सिर्फ फसल उगाता है
तू बाजार नहीं बनाता अपनी फसल का
फसल तेरी होती है, दाम किसी और का
और तू हाथ मलता रह जाता है
तू अभिशप्त है
गरीबी में जीने को, बस खटते रहने को
ताकि पूंजीपति अमीरी में जी सकें
ताकि ये जोंकें आराम कर सकें
ताकि ये तुम्हारी जमीनें छीन सकें
उन पर जबरदस्ती आवास बना कर बेंच सकें
तू अभिशप्त है
क्योंकि तेरा विरोध भी मुखर नहीं है
क्या खाकर तू विरोध करेगा
विरोध पर गोलियाँ मिलती हैं तुझे
तेरा कुचला हुआ सर "आगरा" या "टप्पल" में कहीं है
तू अभिशप्त है
क्योंकि तू मीडिया के लिये कोई खबर नहीं है
कितनी भी कर ले आत्महत्यायें "विदर्भ" हो या बुन्देलखण्ड
कोई नहीं पसीजेगा इतना याद रख
क्योंकि तू नेता नहीं, डाक्टर या इंजीनियर नहीं है
तू अभिशप्त है
बाजार का मोहरा बनने को,
चुनावी मुद्दा बनने को,
बीबी के लिये नाम का आसरा बनने को,
बच्चों के लिये झुका हुआ कंधा बनने को
हे कृषक तू अभिशप्त है
9 टिप्पणियां:
एक सच्चाई
सुन्दर प्रस्तुति
बहुत बढ़िया...............
तू अभिशप्त है
क्योंकि तू सिर्फ फसल उगाता है
तू बाजार नहीं बनाता अपनी फसल का
फसल तेरी होती है, दाम किसी और का
और तू हाथ मलता रह जाता है
सशक्त रचना...............
अनु
आज 11/06/2012 को आपकी यह पोस्ट (दीप्ति शर्मा जी की प्रस्तुति मे) http://nayi-purani-halchal.blogspot.com पर पर लिंक की गयी हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
बिलकुल सही कहा आपने....
बहुत ही अच्छी रचना...
अवनीश सिंह जी
कृषक की पीड़ा को आप ने बेहतरीन अंदाज़ में उकेरा है अपनी अभिव्यक्ति में
.......उम्दा पंक्तियाँ
कृषक तू अभिशप्त है , तड़पने को
धूप में जलने को, पाई-पाई जोड़ने को
फिर उसे खाद बीज में खर्च करने को
हर रोज अपना खून पसीना बहाने को,
पर उसका नगण्य प्रतिफल पाने को
हे कृषक तू अभिशप्त है
तू अभिशप्त है
बाजार का मोहरा बनने को,
सच्चाई यही है...
सुन्दर रचना...
किसान का पूरा दर्द उतार दिया दिया
बहुत ही दयनीय सच ......क्या उसके किये कुछ नहीं हो सकता .....
sach kitni bidambana hai jo kisan sabke liye anaj ugata hai uski vqkt par sunne wala koi nahi hota uske paas..
..ek katu satya jo gale mein atak jaata hai..
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