बुधवार, 20 नवंबर 2013

प्रतिमायें

[ प्रतिमायें ]
एक गाँव के पास एक विशेष जगह थी| वहाँ बड़ी बड़ी गगनचुंबी प्रतिमायें खड़ी थीं| प्रतिमायें इतनी ऊँची थीं कि उनका चेहरा भी साफ दिखाई नहीं देता था| इतनी विशाल थीं कि गाँव वाले उनके चरणों से आगे कुछ देख ही नहीं पाते थे| और उन्हीं चरणों की रज लेकर खुद को धन्य समझते थे| उनके बारे में बड़ी कहानियाँ प्रचलित थीं| सब अपने-2 कर्मक्षेत्रों के महान देवता थे| उनकी बड़ी धाक थी| कभी किसी गँवार को उनकी महानता पर शक भी होता तो बाकी सारे अंधभक्त उसको डांट डपट कर चुप करा देते| और उनकी महानता पर उठने वाला कोई प्रश्नचिन्ह उनपर लगने से पहले ही अपनी मौत मर जाता है| गाँव वाले उनकी बहुत इज्जत करते|
ये सिलसिला दशकों तक चला| फिर अचानक गाँव की हवा को जाने क्या हो गया, बहुत तेज बहने लगी| उस स्थान विशेष की जमीन भी सरकने लगी| भव्य प्रतिमायें हिलने लगीं, कुछ तो धीरे-2 जमीन में भी धँसने लगीं| उनके चेहरे भी दिखाई देने लगे| गाँव वाले दौड़े दौड़े आये और ये देखकर आश्चर्यचकित रह गये कि सारी मूर्तियाँ हद दर्जे की नकली थीं| उनके चेहरे की जगह कई सारे नकाब थे, प्याज के छिलकों की तरह गाँव वालों ने एक के बाद एक के नकाब उतारे और असली चेहरा भी देखा| भद्दा और घिघौना चेहरा| गाँव वालों ने ये भी देखा कि एक प्रतिमा के कपड़े उतरे हुये हैं और अन्य प्रतिमायें अपने अपने कपड़े उसे दे रही हैं| नतीजतन सारी प्रतिमायें नग्नावस्था में पड़ी थीं|
अब गाँव वाले इन खंडित मूर्तियों से छुटकारा पाने की सोच रहे हैं| साथ ही साथ अपनी खंडित आस्थाओं से भी| पर कुछ गाँव वाले अभी भी अपने देखे पर यकीन नहीं कर पा रहे हैं| ये सोच रहे हैं कि ये तूफान की साजिश है, जमीन के खिसकने के पीछे भी कोई साजिश है और उन प्रतिमाओं को दुबारा स्थापित करने के पक्ष में हैं|
प्रतिमाओं का क्या होगा ये इस पर निर्भर है कि गाँव वाले अपनी आँखों देखी पर यकीन करेंगे या अंधभक्ति के सागर में गोते लगायेंगे|
- अवनीश कुमार

गुरुवार, 17 अक्टूबर 2013

हम प्रगति कर रहे हैं


हम प्रगति कर रहे हैं

सदियों पुरानी अँधेरी दुनिया के,
अँधेरे को ललकार रहे हैं
अँधेरे में डूबे लोग
अँधेरे मिटाने में लगे हैं

यह सदी है रौशनी के आधिक्य की,
उजाला इतना ज्यादा है
आँखों में इतना चमकता है
कि आँखें चौंधिया गयी हैं
कुछ सूझता ही नहीं
इस उजाले के अंधेपन से
कोई जूझता भी नहीं

ये उजाले के मायाजाल में
कौन है जो हमें लूट रहा है
अभी तनकर खड़े भी न हुये
अभी से नींव में क्या टूट रहा है

उजालों में परछाईं बन हर रोज बिखर रहे हैं
हाँ, हम प्रगति कर रहे हैं

शनिवार, 12 अक्टूबर 2013

भाषा नहीं, लोक से भी छल

।।राममनोहर लोहिया।।

हिंदुस्तान की भाषाएं अभी गरीब हैं। इसलिए मौजूदा दुनिया में जो कुछ तरक्की हुई, विद्या की, ज्ञान की और दूसरी बातों की, उनको अगर हासिल करना है तब एक धनी भाषा का सहारा लेना पड़ेगा। अंग्रेज़ी एक धनी भाषा भी है और साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय भाषा भी। चाहे दुर्भाग्य से ही क्यों न हो, वह अंग्रेज़ी हमको मिल गई तो उसे क्यों छोड़ दें।

ये विचार हमेशा अंग्रेज़ीवालों की तरफ से सुनने को मिलते हैं। इसमें एक के बाद एक सब गलत बातें गिनाने लगें तो तादाद काफी हो जाएगी। लेकिन पहले मैं थोड़ी देर के लिए यह मानकर चलता हूं कि तेलुगु, उर्दू, हिंदी ये गरीब भाषाएं हैं, इनमें शब्द काफी नहीं हैं। इनसे हमारे कानून, विज्ञान वगैरह का काम ठीक से नहीं चल सकता। तब उससे यह नतीजा निकलता है कि हम किसी और धनी भाषा का इस्तेमाल करें। तब तो बड़ा ही खतरनाक परिणाम होगा और हमारी भाषाएं तो सदा गरीब ही बनी रहेंगी।

जो लोग कहते हैं कि तेलुगु, हिंदी, उर्दू, मराठी गरीब भाषाएं हैं और आधुनिक दुनिया के लायक नहीं हैं, उनको तो इन भाषाओं के और अधिक इस्तेमाल की बात सोचनी चाहिए क्योंकि इस्तेमाल करते-करते ही भाषाएं धनी बनेंगी। जब मैं कभी इस तर्क को सुनता हूँ तो बहुत आश्चर्य होता है कि मामूली बुद्धि के लोग भी कैसे इस बात को कह सकते हैं कि अंग्रेज़ी का इस्तेमाल करो क्योंकि तुम्हारी भाषाएं गरीब हैं। अगर अंग्रेज़ी का इस्तेमाल करते रहेंगे तो हमारी अपनी भाषाएं कभी धनी बन ही नहीं पाएंगी।

जापान के सामने यह समस्या आई थी जो इस वक्त हिंदुस्तान के सामने है। 90-100 बरस पहले जापान की भाषा हमारी भाषा से कमज़ोर थी। 1850-60 के आसपास गोरे लोगों के साथ संपर्क में आने पर जापान के लोग बड़े घबड़ाए। उन्होंने अपने लड़के-लड़िकयों को यूरोप भेजा कि जाओ, पढ़ कर आओ, देख कर आओ कि कैसे ये इतने शक्तिशाली हो गए हैं। कोई विज्ञान पढ़ने गया, कोई दवाई पढ़ने गया, कोई इंजीनियरी पढ़ने गया और पांच-दस बरस में जब पढ़कर लौटे तो अपने देश में ही अस्पताल, कारखाने, कालेज खोले। जापानी लड़के जिस भाषा में पढ़कर आए थे उसी भाषा में काम करने लगे। जापानी सरकार के सामने यह सवाल आ गया। सरकार ने कहा, नहीं तुमको अपनी रिपोर्ट जापानी में लिखनी पड़ेगी।उन लोगों ने कोशिश की और कहा कि नहीं, यह हमसे नहीं हो पाता क्योंकि जापानी में शब्द नहीं हैं, कैसे लिखें? तब जापानी सरकार ने लंबी बहस के बाद यह फैसला लिया कि तुमको अपनी सब रिपोर्टैं जापानी में ही लिखनी होंगी। अगर कहीं कोई शब्द जापानी भाषा में नहीं मिलता हो तो जिस भी भाषा में सीखकर आए हो उसी में लिख दो। घिसते-घिसते ठीक हो जाएगा। उन लोगों को मजबूरी में जापानी में लिखना पड़ा।

हिंदी या हिंदुस्तान की किसी भी अन्य भाषा के प्रश्न का संबंध केवल संकल्प से है। सार्वजनिक संकल्प हमेशा राजनैतिक हुआ करते हैं। अंग्रेज़ी हटे अथवा न हटे, हिंदी आए अथवा कब आए, यह प्रश्न विशुद्ध रूप से राजनैतिक संकल्प का है। इसका विश्लेषण या वस्तुनिष्ठ तर्क से कोई संबंध नहीं। यह केवल संकल्प का प्रश्न है। मोटे तौर पर हिंदुस्तान के उच्च वर्ग के लोग अंग्रेज़ी राज के ज़माने से एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। भारतीय क्रांति की सबसे बड़ी असफलता ठीक इसी में हैं। राजा या वाइसराय खत्म हो जाते हैं पर उच्च वर्ग बरकरार रहता है। यह सभी जानते हैं कि जनता की, विशेष रूप से निम्न मध्यम वर्ग और किसानों की, लंबी लड़ाई के द्वारा आज़ादी मिली; और उन्होंने भारतीय मामलों में हिंदी और अपने सूबाई मामलों में अपनी-अपनी क्षेत्रीय भाषाओं का इस्तेमाल किया। सन् 1919-20 में महात्मा गांधी ने यह परिवर्तन किया। यह कहना बहुत ही छलपूर्ण बात है कि अंग्रेज़ी भाषा ने देश को आज़ाद किया और ऐसा वे ही लोग कहते हैं जिन्होंने अंग्रेज़ी राज की गुलामी की या जब उन्होंने उसका प्रतिकार भी किया तो सन् 20 के पहले सहयोगवादी ढंग से ही किया।लेकिन वे इतने चालाक थे कि उन्होंने अपने विशेषाधिकारों को, जिसमें भाषा भी है, आज़ादी के बाद भी कायम रखा। आज़ादी की लड़ाई की भाषाओं की जगह सामन्ती वर्चस्व की भाषा ने ले ली है। हमारे उच्च वर्ग के दिमाग को कोई एक हज़ार वर्षों से एक डर ने जकड़ लिया है। इस वर्ग के लोग या तो अपने ही लोगों से डरते हैं या फिर उन्हें हीन समझते हैं। इसलिए उनकी मनोवृत्ति संकुचित हो गई है। देश में एक व्यापक मनोवृत्ति की आवश्यकता है। अगर अपने पड़ोसियों के साथ बराबरी से रहना है तो हमें सभी दिशाओं में ज्ञान के भंडार का विस्तार करना होगा। लेकिन उच्च वर्ग के लोग ऐसे अनिश्चित विस्तार से डरते हैं, और राष्ट्रीय उत्पादन की दयनीय कमी में भी वे अपने तुच्छ भाग को कायम रखने या उसे बढ़ाने की ही चिंता में रहते हैं। मैं नहीं समझता कि सारा उच्च वर्ग इस संकुचित मनोवृत्ति से छुटकारा पा लेगा। पर उच्च वर्ग के युवकों या कम से कम उनके एक तबके को इसके खिलाफ उठना चाहिए।

सबसे बुरी बात तो यह है कि अंग्रेज़ी के कारण भारतीय जनता अपने को हीन समझती है। वह अंग्रेज़ी नहीं समझती। इसलिए सोचती है कि वह किसी भी सार्वजनिक काम के लायक नहीं है और मैदान छोड़ देती है। जनसाधारण द्वारा इस तरह मैदान छोड़ देने के कारण ही सामंती राज्य की बुनियाद पड़ी। लोकभाषा के बिना लोकराज्य असंभव है। कुछ लोग यह गलत सोचते हैं कि उनके बच्चे को अवसर मिलने पर वे भी अंग्रेज़ी में उच्च वर्ग जैसी ही योग्यता हासिल कर सकते हैं। सौ में एक की बात अलग है, पर यह असंभव है। उच्च वर्ग अपने घरों में अंग्रेज़ी का वातावरण बना सकते हैं और पीढ़ियों से बनाते भी आ रहे हैं। विदेशी भाषाओं के अध्ययन में जनता इन पुश्तैनी गुलामों का मुकाबला नहीं कर सकती।
 
बच्चा किसके साथ अच्छी तरह खेल सकता है, अपनी मां के साथ या पराई मां के साथ? हिंदुस्तानी आदमी तेलुगु, हिंदी, उर्दू, बंगाली, मराठी के साथ खेल सकता है। उनमें नये-नये ढांचे बना सकता है। उनमें जान डाल सकता है, रंग ला सकता है। बच्चा जितनी अच्छी तरह से अपनी मां के साथ खेल सकता है, दूसरे की मां के साथ उतनी अच्छी तरह से नहीं खेल सकता। यह यकीन मानिए कि जो हिंदुस्तानी अंग्रेज़ी लिखते और बोलते हैं, 2-4-10 को छोड़ दीजिए, वे कुछ भले बंदर हो सकते हैं, लेकिन बाकी तो भौंडे बंदर हैं, भद्दे बंदर हैं। उनको अंग्रेज़ी नहीं आती। मेरे मन में तो इतनी कुढ़न होती है जब उनको बोलते सुनता हूं कि अंग्रेज़ी धनी भाषा है इसिलए उसका इस्तेमाल करना चाहिए, उसी से काम चल पाएगा। तबीयत होती है कि उन भद्दे बंदरों को चांटा मारकर बतलाया जाए कि वे खुद कितनी अंग्रेज़ी जानते हैं, और कह रहे हैं अंग्रेज़ी धनी भाषा है।

भाषा एक रथ है। रथ का काम है बिना भेदभाव के सबको ढोए। मुझे यह कहने की ज़रूरत इसिलए पड़ रही है कि कुछ लोगों ने अंग्रेज़ी हटाओ को अंग्रेज़ियत हटाओ के अर्थ में पकड़ लिया है। अंग्रेज़ियत का मतलब नकलीपन अथवा कृत्रिमता है तो मुझे कोई आपित नहीं। लेकिन यदि इसका मतलब होता है औरतों का होठों पर लाली न लगाना, अथवा मर्द-औरत के नाच के बजाय भरतनाट्यम और कत्थक का ही चलते रहना, और तलाक का न होना, तब मुझे कहना पड़ता है कि भाषा रूपी रथ को दोनों वृत्तियों को समान रूप से वहन करना चाहिए। हिंदी में इतनी सामर्थ्य होनी चाहिए कि वह पवित्रता और छिनाली, दोनों के काम बराबर आ सके।
मैं कभी हिंदी और कभी हिंदुस्तानी का इस्तेमाल करता हूं, और उर्दू के बारे में भी मैं वही कहना चाहूंगा। ये तीनों एक ही भाषा की तीन विभिन्न शैलिया है। मुझे विश्वास है कि अगले बीस-तीस बरसों में ये एक हो जाएंगी। विशुद्धतावादियों ओर मेलवादियों को आपस में झगड़ने दो। लेकिन इन दोनो को ‘अंग्रेज़ी हटाओ’ आंदोलन का अंग बनना चाहिए। पर हमें सावधान रहना चाहिए कि अंग्रेज़ी कायम रखने की बड़ी साज़िश चल रही है और सभी तरह के झगड़े वही खड़े करती है। आंदोलन में इन तीनों शैलियों का स्वागत होना चाहिए क्योंकि भविष्य में इनके बीच कोई न कोई रास्ता ज़रूर निकलकर रहेगा। परंतु पुनरुत्थानवादी आभास अवश्य रहेगा, क्योंकि जो अंग्रेज़ी हटाना चाहते हैं उनमें से कुछ अपने अतीत की बातों से चिपटे रहनेवाले भी होंगे। हमें उनसे डरना नहीं चाहिए, क्योंकि वे खुद बहुत जल्दी ही महसूस करेंगे कि उनकी हिंदी या मराठी या तमिल को उदार और चटपटी होना चाहिए। भाषा रसिकता की भी उतनी ही वाहक हो जितनी कि सौम्यता की, सत्य के लिए उतनी ही सुश्लिष्ट जितनी कि चंद्रमा की यात्रा के लिए, ऐसी जिसका परिवेष्टन या विस्तार ज्यादा से ज्यादा व्यापक हो, जो वास्तविकता के साथ अपनी संपूर्ण उत्पत्ति में लावण्यमयी हो।

यह सच है कि हिंदी में आधुनिक ज्ञान प्रचुर मात्रा में उपलब्ध नहीं है, न हिंदी का रथ ऐसे ज्ञान के लायक बन पाया है। मेरा मतलब संभावनाओं से नहीं है, केवल वक्त की असिलयत से है। हिंदी में न जाने कितना पानी आकर मिला है। एक मानी में यह संसार की सर्वश्रेष्ठ भाषा है। इसका शब्द-भंडार संसार की किसी भी भाषा से ज्यादा है। लेकिन ये शब्द आधुनिक ज्ञान के लिए मंजे नहीं हैं। मांजने का कार्य बिला शक होना चाहिए। इसके लिए शब्दकोष रचे जाएं, अनुवाद किए जाएं और किताबें लिखी जाएं। यह सब काम होते रहना चाहिए।
हिंदी ऐसी हो कि उसमें सब तरह की बुद्धियां खिल सकें। भाषा सटीक हो, रंगीन हो, अलग-अलग मतलब को बता सके। यानी पारिभाषिक हो और ठेठ, तथा रोचक। संपन्न भाषा का और कोई मतलब नहीं होता। किसी भाषा में कितने विषय की कितनी किताबें हैं, यह एक गौण अथवा अलग संदर्भ का सवाल है। अगर हिंदी सभी विषयों के लिए सटीक और रंगीन बन जाए, तो पचास हज़ार, लाख किताबों के लिखने या अनुवाद करने में क्या देर लगेगी! जब लोग अंग्रेज़ी हटाने के संदर्भ में हिंदी किताबों की कमी की चर्चा करते हैं, तब हंसी और गुस्सा दोनों आते हैं, क्योंकि यह मूर्खता है या बदमाशी। अगर कॉलेज के अध्यापकों के लिए गरमी की छुट्टियों में एक पुस्तक का अनुवाद करना अनिवार्य कर दिया जाए तो मनचाही किताबें तीन महीनों में तैयार हो जाएंगी। हर हालत में कॉलेज के अध्यापकों की इतनी बड़ी फौज़ से, जो करीब एक लाख की होगी, कहा जा सकता है कि अनुवाद करो या बरखास्त हो जाओ।

इच्छाशक्ति नहीं है। संभावनाएं तो बहुत हैं।

[लोहिया जी (1910-1967) ने यह लेख करीब पचास साल पहले लिखा था। लेकिन हिंदी के हालात जस के तस हैं। इस लेख को मासिक पत्रिका भारत-संधान के जून 2012 अंक से साभार उठाया गया है जिसने इसे ओंकार शरद द्वारा संपादित और लोकभारती प्रकाशन द्वारा प्रकाशित किताब समता और संपन्नता से लिया है]

शुक्रवार, 19 जुलाई 2013

खम्मा / अशोक जमनानी


खम्मा / अशोक जमनानी

किसी भी स्थान पर बसने वालों की संस्कृति से परिचित होना हो तो इसका सबसे सटीक तरीका वहाँ के लोकगीत हैं| लोकगीतों मे लोक की परम्परा निहित होती है| उस क्षेत्र का भूगोल, इतिहास, समाज का तानाबाना, रीतिरिवाज सब कुछ सिर्फ लोकगीतों के सूक्ष्म अध्ययन से पता किये जा सकते हैं| किसी क्षेत्र विशेष के गीतों में वहाँ की स्थानीय वनस्पतियों के नाम, वहाँ के पशुओं के नाम और पहाड़, नदी व अन्य महत्त्वपूर्ण जानकारियाँ उपलब्ध होती हैं| और इन गीतों की जो सबसे बड़ी खासियत है वो यह कि ये जनसाधारण के गीत हैं, इनके लिये किसी विद्वता की आवश्यकता नहीं| ये धनिकों के लिये आरक्षित गीत नहीं हैं, ये सदियों से धरा पर गूँजते हुये गीत हैं जिनमें हमारा आपका इतिहास छुपा है| इन लोकगीतों और लोककलाओं का अपना स्वयं का भी एक इतिहास है| चारण भाट परम्परा से लेकर अल्हैत (आल्हा गाने वाले) और मांगणियार आदि सब इसी परम्परा का हिस्सा हैं| इस अमूल्य धरोहर को सँजोकर रखने की आवश्यकता है और इसका अध्ययन करने की भी बहुत जरूरत है|

इसी परिप्रेक्ष्य में एक कोशिश है अशोक जमनानी का उपन्यास ‘खम्मा’| जमनानी जी ने सतह पर न टिककर डूबने की कोशिश की है और संवेदनाओं में डूबकर वो जो कुछ समेट पाये हैं उसे उन्होने खम्मा में वर्णित किया है| उपन्यास प्रारम्भ करने से पहले ही उन्होने गाँधी जी को उद्धृत किया है| गाँधी जी के अनुसार, लोक-गीत संस्कृति के पहरेदार हैं|







पूरा उपन्यास इसके नायक बींझा के इर्द-गिर्द केन्द्रित है| यहाँ बींझा को समझना उपयुक्त होगा| बींझा मांगणियार परम्परा का आधुनिक चेहरा है, उसके अंदर पारम्परिक कलाकार है, अच्छा सुर है पर वो इस परम्परा के बोझ से मुक्त होना चाहता है| इसलिये नहीं कि उसे गीत संगीत नहीं रुचता बल्कि इसलिये कि उसका आत्मसम्मान खंडित होता है बख्सीस लेने में, हुकुम हुकुम, खम्मा खम्मा करने में| उसका कलाकार सुलभ आत्म सम्मान उसे कहीं भी झुकने से रोकता है| आधुनिक व्यवस्था अपने रोजगार के विकल्पों के साथ उसे आकर्षित करती है| वो शहर का रास्ता नापता है और विदेश जाने के ख्वाब भी रखता है| और पूरी कथा इन्हीं ख्वाबों की है|

कथा के अन्य पात्र हैं मरुखान(बींझा के पिता), सोरठ(बींझा की पत्नी), सूरज(राजपूतों की नयी पौध का प्रतीक), सुरंगी, झाँझर, क्रिस्टीन व ब्रजेन| सारे पात्र परिस्थितियों से जूझते हुये बड़े ही सुंदर दिखाई देते हैं| इन पात्रों में एक चीज ध्यान देने योग्य है| सारे पात्र सकारात्मक रवैये वाले हैं, किसी-2 क्षण कहीं किसी पर नकारात्मकता हावी भी हुई तो बस क्षणिक| उसके बाद फिर से ये जीवन को आशावादी नजरिये से देखने लगते हैं| सबके अंदर जिजीविषा है और साहस भी है| सुरंगी व झाँझर ने जमाने से दबने के बजाय जमाने के दाँव पेंच सीख लिये हैं जो उन्हें ऊर्जा व हिम्मत देता है| उपन्यासकार को अलग से कुछ कहने कि कोई आवश्यकता ही नहीं पड़ती| उसके पात्र इतने सजीव हैं कि सारी बात वे खुद कह जाते हैं|

विचारधारा ढूँढने वालों को यहाँ निराशा हाथ लगेगी| लेखक ने किसी वाद के लिये नहीं लिखा है| लेखक ने एक परम्परा के दीपक की बुझती हुई लौ के बारे में लिखा है, परम्पराओं मे विश्वास करने वाले अपनी विचारधारा यहाँ तलाश सकते हैं| लेखक ने वंचित (शोषित नहीं, शोषित और वंचित में बहुत फर्क है) वर्ग के बारे में लिखा है, वंचितों की बात करने वाले अपनी विचारधारा यहाँ देख सकते हैं| पर इन सबसे ऊपर लेखक ने एक बेहतर कल के सपनों और उम्मीदों के बारे मे लिखा है और सपनों की कोई विचारधारा नहीं होती|

पूरी कथा में एक द्वंद है पुरातन का नवीन से, आदर्श का लोभ से, पूंजी का संस्कृति से, लोकरंग का सिनेमाई रंग से, प्रेम का वासना से| इन द्वंदों के बीच राजपूतों और मांगणियारों के सम्बन्ध को नये संदर्भ में समझने कि चेष्टा है और इन सम्बन्धों के पुनर्परिभाषित होने का द्वंद पूरी कथा में सशक्त रूप से विद्यमान है| वर्तमान संदर्भ में राजपूतों और मांगणियारों के बीच उच्च और निम्न का रिश्ता अप्रासंगिक और त्याज्य है| कलाकार और रसिक के बीच मैत्री का रिश्ता होना चाहिये और अशोक जी यह संदेश देने मे सफल हैं|

उपन्यास का कथानक गतिशील है और पाठक की उत्सुकता बनाये रखने का पूरा जतन किया गया है| कथा कहीं भी बोझिल नहीं है| धोरे-टीले, खड़ताल, मोरचंग, कमायचा, बींदणी, चानंण पख, अंधार पख, पीवणा आदि शब्द एक पूरे सांस्कृतिक परिवेश की सृष्टि करते हैं| बीच-बीच में मोतियों की भाँति सजे गीत पाठक को कहीं और ले जाते हैं, संगीत और प्रेमकहानियाँ मिलकर एक अलग ही भाव प्रस्तुत करती हैं| और वो भाव हमेशा सांस्कृतिक धरोहरों को सहेजने के प्रति सजग करते हैं और यही इस उपन्यास की सफलता है|

अन्त में उपन्यास से कुछ चुने हुये अंश:

1- औरत जिंदगी में आगे तो बढ़ती है लेकिन पीछे छूटे का मोह नहीं छोड़ पाती| बार-बार पलटकर देखती है| (पृष्ठ 66 )

2- जिस कलाकार के दिल को ठेस लगी होती है उसका हुनर केवल हुनर कहाँ रह जाता है? उसके हुनर को तो उसकी पीर, पीर बना देती है| (पृष्ठ 71)


3- एक बात मैं साफ-2 बता दूँ चाहे किसी को मेरा हुनर कितना भी अच्छा क्यों न लगे मैं अपना मेहनताना तो ले सकता हूँ लेकिन बख्सीस या भीख मुझे मंजूर नहीं है| न कभी ली है और न कभी लूँगा| (पृष्ठ 93)

4- दो मरद साथ में रहें तो घर की हालत बिगाड़ दें लेकिन दो औरतें एक घर में हों और घर गंदा रहे तो समझ लेना कि दोनों के दिल में बैर है| (पृष्ठ 94)

5- धोरे टीलों की किस्मत में विधाता ठहराव कहाँ लिखता है| धोरे टीले जिनके पैरों से लिपटते हैं वो भी उनकी शक्ल बिगाड़ कर आगे बढ़ जाते हैं| जिन्हे वो अपनी गोद में बहुत मुहब्बत के साथ पनाह देते हैं वो भी बैठे बैठे बेवजह ही उनके साथ खिलवाड़ करते रहते हैं| हर एक आमद धोरे टीलों का रूप बिगाड़ती है और शायद उन्होने भी इसे किस्मत का लिखा मानकर सब कुछ सहने का मन तो बना लिया है| लेकिन कहीं न कहीं एक टीस बाकी है इसलिये ये धोरे-टीले धीमे धीमे सरकते हैं और कभी कोई बेखुदी मे उनकी कगार पर पहुँच जाता है तो उसे लेकर इस तरह फिसलते हैं कि वो रेत में डूबा शख़्स जब उबरता है तो धोरे-टीलों का मन उसे देखकर देर तक खिलखिलाता है| लेकिन इन्हीं कगारों पर रहे ऊँटों से धोरे-टीलों का एक समझौता सा हो गया है, वो उन्हे नहीं गिराते| जब तेज हवायें धोरे-टीलों का रूप रूप बिगाड़ती हैं और उनकी रेत उड़कर न जाने कहाँ से कहाँ पहुँच जाती है तब ये ऊंटों के कारवाँ ही तो हैं जो वहाँ जा जा कर धोरे-टीलों की बिछड़ी रेत को उनके बिछड़े हुओं का संदेशा सुनाते हैं और वहाँ इनके पाँव से लिपटकर वो रेत उनसे मिल लेती है जिनसे बिछड़े हुये जमाना बीत चुका होता है| शायद इसी रिश्ते की दुहाई लेकर ऊँट इन धोरे-टीलों पर बेफिक्र होकर चलते हैं| (पृष्ठ 106 )

6- लेकिन कुछ कलाकार हैं जो किसी के आगे सिर नहीं झुकाते| उनकी आवाज में वो नूर होता है जो लोगों की रूह तक पहुंचता है| ( पृष्ठ 155 )

7- मांगणियार नहीं गाते, माडधरा गाती है मांगणियारों के गले में उतरकर (आवरण पृष्ठ)

ढ़ोला मारू के गीत


[ढ़ोला मारू के गीत - अशोक जमनानी जी की पुस्तक 'खम्मा' से साभार]

अकथ कहानी प्रेम की किणसूं कही न जाय
गूंगा को सुपना भया, सुमर-सुमर पछताय|

प्रेम की कहानी ऐसी, खुद प्रेम ऐसा कि वो ठीक से किसी से बताया न जाए| जैसे कोई गूंगा कभी सपना देख ले और अपना वो अनमोल सपना सबको बताना भी चाहे तो बता नहीं सकता क्योंकि वो तो बोल ही नहीं सकता| बस, मोहब्बत की कहानी भी ऐसी ही अकथ होती है| वो कही नहीं जा सकती| ढ़ोला-मारू का ब्याह तो बचपने में ही हो गया था| फिर दोनों अपने-अपने घरों को चले गए| पर जब मारू सयानी हुई तो ढ़ोला कि याद में, उसकी विरह में उसका दुख ऐसा पिघला कि जब-जब उसे ढ़ोला की याद आती तब-तब उसे ऐसा लगता कि मानो कोई तीर आकर उसे चुभ रहा हो| वो बस एक ही बात सोचती थी कि काश उसे पंख मिल जायें तो वो उड़कर अपने ढ़ोला के पास चली जाए|



जिमि जिमि सज्जण संभरई तिमि तिमि लग्गइ तीर
पंख हुवइ तो जाइ मिलि, मनां बंधाड़ां धीर

मारू अपने मन को दिलासा देती कि शायद उसे पंख मिल जायेंगे तो वो उड़कर अपने ढ़ोला के पास चली जायेगी| लेकिन प्रेमियों का मन तो हर पल बदलता रहता है| मारू एक पल तो खुद को दिलासा देती लेकिन फिर दूसरे ही पल खुद से कहती कि अगर भाग्य ही उल्टा है तो पंख मिलने से भी क्या होगा? वो कहती कि चकवी के भी तो पंख हैं लेकिन वो फिर भी रात में अपने पिया से नहीं मिल पाती|

पंखड़ियां ई किऊं नहीं, देव अवाडू ज्यांह
चकवी कइ हइ पंखड़ी, रवणि न मेलउं त्यांह

मारू सोचती है कि वो अपना संदेसा ही ढ़ोला तक पहुंचा दे क्योंकि संदेसे का मोल भी कम नहीं है| लेकिन वो सोचती है कि संदेसा ले जाने के लिए कोई ऐसा मिलना चाहिए जो उसका संदेसा सुनाते समय अपनी आँखों में उतना ही पानी भर सके जितना ढ़ोला की आंखों में है| अगर ऐसा संदेसा सुनाने वाला कोई मिल गया तो उसका संदेसा अनमोल हो जाएगा नहीं तो उसका कोई मोल ही नहीं होगा|


संदेसा ही लख लहई, जउं कहि जाणइ कोई
ज्यूं धणि आखई नयण भरि ज्यूं जइ आखई सोइ

मारू कहती है कि मेरा संदेसा तो पहुंचे लेकिन जवाब में मेरा ढ़ोला मुझे कोई संदेसा न भिजवाए बल्कि खुद ही आ जाये| क्योंकि उसने संदेसे के बदले संदेसा भिजवा दिया तो मैं उस संदेसे को बांच ही नहीं पाऊँगी क्योंकि बिरहा ने मेरी उँगलियों को गला दिया है और मेरी आंखों में इतने आँसू हैं कि मुझे कुछ भी दिखाई ही नहीं देता|

संदेसा मत मोकलउ प्रीतम तू आवेस
आंगुलड़ी ही गलि गयां नयण न वांचण देस

मारू वीछोड़े के कारण अपने सपनों से भी बहुत नाराज है वो कहती है कि वो अपने सपनों के दिलों में छेद करवाकर उन्हें खत्म करवा देगी क्योंकि उसके सपने आँखें बंद करने के बाद भी उसे अकेला रहने नहीं देते और उसके ढ़ोला को उसके पास ले आते हैं और जब वो उन सपनों पर भरोसा करके आंखें खोलती है तो वो खुद को अकेली ही पाती है|

सुहिणा तोहि मराविसूं हियइ दिराऊं छेक
जद सोऊं तद दोइ जण जद जागूं तद ऐक

मारू ढ़ोला को लोभी होने का उलाहना देकर कहती है कि अब तो घर लौट आओ .............

लोभी ठाकुर आवि घर
आवि घर S S S S
आवि घर S S S S
कांई कराइ विदेस
आवि घर
आवि घर S S S S “

शुक्रवार, 21 जून 2013

कईसे भाई के सनेहिया बाटल जाई विरना


ये भोजपुरी का एक प्रसिद्ध गीत है| गीत लिखा है तारकेश्वर मिश्रा ने और उसको आवाज दी है रविन्दर कुमार राजू ने |गीत बहुत ही मार्मिक और हृदयस्पर्शी है| प्रसंग कुछ यूं है : तीन भाई हैं, बड़ा भाई खेती करता है, मँझला शहर में नौकरी करता है और छोटा भाई अभी पढ़ रहा है| मँझला भाई छुट्टी में घर आया हुआ है और आते ही उसके कान भरे जाते हैं कि आप तो बाहर कमा रहे हो और बाकी लोग घर पर मजे मार रहे हैं| छोटा भाई खेत पर पहुँचता है और बड़े भाई से कहता है अब तक जो हुआ सो हुआ, अब हमें अलग हो जाना चाहिये| उसका हठ देखकर बड़े भाई को बड़ा कष्ट होता है और वो छोटे भाई को समझाता है कि धन दौलत, खेत खलिहान सब बाँट लोगे पर क्या हमारा स्नेह भी बँट पायेगा| ये पूरा गीत बड़े भाई का छोटे भाई से अलग न होने का निवेदन है|

इस गीत को यहाँ से सुना जा सकता है  :

http://www.saavn.com/s/#!/p/song/bhojpuri/Ae+Balam+Ji/Khet+Bari+Bat+Jayi/OCknfhcCeF4
 
आपसे अनुरोध है कि पहले पूरा गीत भोजपुरी में ही पढ़ें, उसके बाद ही अनुवाद पढ़ें|

आदमी के सतावला से का फायेदा
दिल प पत्थर चलवला से का फायेदा
नेह अंगना गेडाईल बटाईल हिया
त भीती अईसन उठवला से का फायेदा
-

खेत बारी बट जाई
अरे अंगना दुवारवा , पाई पाई विरना
हो कईसे भाई के सनेहिया बाटल जाई विरना
कईसे भाई के सनेहिया बाटल जाई विरना

एके रहल बाप एके रहली महतारी
तीन गो फुलईले फुल एके फुलवारी
अबही गवाह बाटे पढे वाला झोरा
चन्दा मामा औरी दुध भात के कटोरा
गंवुवा के लोग आ के बखरा लगाई , फरिआई विरना
हो बोला बांटी के हमार परछाई विरना
हो बोला बांटी के हमार परछाई विरना

हमरा के चाही ना कमाई के रुपईया
बाबु कहब केकरा कहबs तु भईया
राम आ भरत के मिलाप जब होई
कसकी करेजा मन मने मन रोई
पीछे पीछे लोग सब इहे बतियाई , गरियाई विरना
हो गईले बाबु के बेटउवा अलगाई विरना
हो गईले बाबु के बेटउवा अलगाई विरना

तोहरा घरे पुडी पकवान जईहा पाकी
कोना जाके बचवा हमार कवनो झांकी
आके अपना दुख के कहानी जब बांची
हमरा के कुछु नाही दिहली हो चाची
ओने पकवान एने लईकन के रोवाई , ना सहाई विरना
हो तोहरा पुआ पकवान ना घोटाई विरना
हो तोहरा पुआ पकवान ना घोटाई विरना

हमरा तोहरा बेटी के बरात जईहा आई
तु देबs स्कुटर हमरा कुछु ना दियाई
बेटी तोहार जईहे जीप चाहे कार से
बेटी हमार पैदल चाहे डोलिया कहार से
एगो आंख हसी एगो आंसु बरसाई , ना सहाई विरना
हो तहिया कईसन लागी बेटी के विदाई विरना
हो तहिया कईसन लागी बेटी के विदाई विरना

सोच तनी हमरा के का कही जमाना
हसी हसी चुन्नु पाण्डेय मारे लगिहे ताना
चार दिन के संग बा मचावs जनि तबाही
दुनिया हो राग रविन्दर लोग हवन राही
फेरु नाही आई केहु देखे ई कमाई , हउवे काई विरना
हो कईसे माई के अंचरवा बाटल जाई विरना
हो कईसे माई के अंचरवा बाटल जाई विरना
खेत बारी बट जाई
अरे अंगना दुवारवा , पाई पाई विरना
हो कईसे भाई के सनेहिया बाटल जाई विरना


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अनुवाद सहित गीत ::
आदमी के सतावला से का फायेदा
दिल प पत्थर चलवला से का फायेदा
नेह अंगना गेडाईल बटाईल हिया
त भीती अईसन उठवला से का फायेदा-
[आदमी को सताने से क्या फायदा,
दिल पर पत्थर चलाने से क्या फायदा
आँगन का स्नेह बंट जा रहा है
तो ऐसी दीवार उठाने से क्या फायदा]

खेत बारी बट जाई
अरे अंगना दुवारवा , पाई पाई विरना
हो कईसे भाई के सनेहिया बाटल जाई विरना
कईसे भाई के सनेहिया बाटल जाई विरना
[खेत-बाड़ी बंट जायेगा
अरे आँगन द्वार भी, पाई पाई बंट जायेगा हे प्रिय भाई (विरना स्नेह का सम्बोधन है),
पर भाई का स्नेह कैसे बाँटा जायेगा प्रिय भाई ]


एके रहल बाप एके रहली महतारी
तीन गो फुलईले फुल एके फुलवारी
अबही गवाह बाटे पढे वाला झोरा
चन्दा मामा औरी दुध भात के कटोरा
गंवुवा के लोग आ के बखरा लगाई , फरिआई विरना
हो बोला बांटी के हमार परछाई विरना
हो बोला बांटी के हमार परछाई विरना
[एक ही पिता हैं हमारे, एक ही माँ
एक ही फुलवारी में तीन फूल खिले थे
आज भी गवाह है वो पढ़ने ले जाने वाला झोला,
वो चंदा मामा और वो दूध भात का कटोरा|
गाँव के लोग आयेंगे, हिस्सा लगायेंगे, सब बाँटेंगे
पर बताओ कि मेरी परछाईं (जो तुम हो) मुझसे कौन बांटेगा मेरे प्रिय भाई ]

हमरा के चाही ना कमाई के रुपईया
बाबु कहब केकरा कहबs तु भईया
राम आ भरत के मिलाप जब होई
कसकी करेजा मन मने मन रोई
पीछे पीछे लोग सब इहे बतियाई , गरियाई विरना
हो गईले बाबु के बेटउवा अलगाई विरना
हो गईले बाबु के बेटउवा अलगाई विरना
[मुझको कमाई के रुपये नहीं चाहिये,
मैं बाबू किसको कहूँगा, तुम भैया किसको कहोगे
जब राम और भरत की तरह हमारा मिलाप होगा (जैसे वो वन जाने से पहले मिले थे)
कलेजे में कसक उठेगी, मन अंदर ही अंदर रोयेगा|
ये सारे लोग हमारे पीछे हमारी हँसी उड़ायेंगे और गालियाँ देंगे
कहेंगे कि एक ही बाप के बेटे अलग हो गए हैं ]

तोहरा घरे पुडी पकवान जईहा पाकी
कोना जाके बचवा हमार कवनो झांकी
आके अपना दुख के कहानी जब बांची
हमरा के कुछु नाही दिहली हो चाची
ओने पकवान एने लईकन के रोवाई , ना सहाई विरना
हो तोहरा पुआ पकवान ना घोटाई विरना
हो तोहरा पुआ पकवान ना घोटाई विरना
[ तुम्हारे घर जिस दिन पूड़ी पकवान आदि पकेगा
किसी कोने में जाकर मेरा कोई बच्चा झाँकेगा
फिर जब वो वापस आकर अपना दुख बतायेगा
कि मुझे चाची ने कुछ नहीं दिया|
वो पकवान इन बच्चों को रुलायेंगे, ये सहा न जायेगा प्रिय भाई
तुमसे भी वो पुआ पकवान खाया न जायेगा, गले से नीचे न उतरेगा प्रिय भाई ]

हमरा तोहरा बेटी के बरात जईहा आई
तु देबs स्कुटर हमरा कुछु ना दियाई
बेटी तोहार जईहे जीप चाहे कार से
बेटी हमार पैदल चाहे डोलिया कहार से
एगो आंख हसी एगो आंसु बरसाई , ना सहाई विरना
हो तहिया कईसन लागी बेटी के विदाई विरना
हो तहिया कईसन लागी बेटी के विदाई विरना
[जिस दिन हमारी तुम्हारी बेटियों की बारातें आयेंगी
तुम स्कूटर दोगे और मैं कुछ भी न दे पाऊँगा
तुम्हारी बेटी जीप या कार से जायेगी
मेरी बेटी पैदल या डोली कहार से जायेगी|
एक आँख हँसेगी और एक आँसू बहायेगी, ये सहा न जायेगा प्रिय भाई
उस दिन बेटी की विदाई कैसी लगेगी प्रिय भाई ]

सोच तनी हमरा के का कही जमाना
हसी हसी चुन्नु पाण्डेय मारे लगिहे ताना
चार दिन के संग बा मचावs जनि तबाही
दुनिया हो राग रविन्दर लोग हवन राही
फेरु नाही आई केहु देखे ई कमाई , हउवे काई विरना
हो कईसे माई के अंचरवा बाटल जाई विरना
हो कईसे माई के अंचरवा बाटल जाई विरना
खेत बारी बट जाई
अरे अंगना दुवारवा , पाई पाई विरना
हो कईसे भाई के सनेहिया बाटल जाई विरना
[जरा सोच ये समाज क्या कहेगा हम को
चुन्नू पांडे हँस हँस कर ताना मारेंगे (तंज़ कसेंगे)
चार दिन का साथ है, इतनी तबाही मत मचाओ
दुनिया में राग रंग हैं, रविंदर (यह गायक का नाम है ) आदि लोग भी इसी राह के लोग हैं
फिर कोई ये कमाई देखने नहीं आयेगा, ये सब क्या है (यानि कुछ नहीं है) प्रिय भाई
अरे, माँ का आँचल कैसे बांटोगे मेरे प्रिय भाई| ]

[खेत-बाड़ी बंट जायेगा
अरे आँगन द्वार भी, पाई पाई बंट जायेगा हे प्रिय भाई,
पर भाई का स्नेह कैसे बाँटा जायेगा प्रिय भाई]

सोमवार, 17 जून 2013

बेटा, तुमसे ना हो पायेगा

कथा उस समय की है जब हिन्दी साहित्य के आकाश मे रचनात्मकता पर ग्रहण लगा हुआ था| लेखक और पाठक एक दूसरे से दूर जा रहे थे| हिन्दी अपने तमाम स्वघोषित सेवकों की सेवा के बावजूद भी दिन ब दिन दुबली होती जा रही थी| लेखकों की संख्या तो रक्तबीज की तरह बढ़ रही थी पर सुधी पाठक गिद्धों की तरह विलुप्त हो रहे थे| ये साहित्य का संक्रमण काल था| लेखक पाठक का संवाद पुल टूट चुका था और उस टूटे पुल के अवशेषों पर मठाधीशों का अबाध तांडव नृत्य चल रहा था|

इसी समय एक युवक हिन्दी साहित्य की इस दुर्दशा से परेशान था| अपनी मातृभाषा की ये हालत देखकर उसका हृदय वेदना से भर जाता था| युवक का नाम भावेश था| भावेश वैसे तो इंजीनियर था पर उसके भाव उसे साहित्य की दुनिया से जोड़ते थे| उसे ये एकरस साहित्य बिलकुल अच्छा नहीं लगता था| वह अक्सर सोचता कि हिन्दी में भी भिन्न भिन्न विषयों पर खूब लेखन हो, हिन्दी की पुस्तकों का बड़ा बाजार हो, लेखक सिर्फ लेखन कर्म से ही जीविका चला सके, हिन्दी के लेखक भी अँग्रेजी के लेखकों की तरह पूजे जायें, उनकी पुस्तकों पर भी कई-कई फिल्में बनें और उनके आगे पीछे भी रूपवती कन्याओं के झुंड आटोग्राफ के लिये मँडराते रहें| पर ये सब होने की उसे दूर दूर तक कोई संभावना नहीं दिख रही थी| फिर जब उसका हृदय एक दिन भावावेश से द्रवित हुआ तो उसने ये काम खुद ही करने की ठानी| उसने सोचा कि वह जन जन के लिये लिखेगा और उसे आम जन तक पहुंचायेगा भी| अपनी मातृभाषा के साहित्य को समृद्ध करने की कल्पना से वह बड़ा खुश हुआ और हिन्दी में अच्छा लिखने का बीड़ा उठा लिया| पर अब इतना सोच लेने भर से तो कोई लेखक कवि हो नहीं जाता| लेखन तो साधना है और साधना के लिये मार्गदर्शक गुरु की आवश्यकता पड़ती है| भावेश को बचपन में माँ द्वारा गुरु महिमा के बारे में सुनाई बातें याद आने लगीं और उनके रीमिक्स भावेश के कानों में गूँजने लगे| 
                  “गुरु बिन कोई न जाने, गुरु बिन कहीं न पूछ |
                     गुरु बिन पुस्तक ना छ्पै, तू बस गुरु को पूज ||”

तो गुरु की खोज प्रारम्भ हुई| भावेश अक्सर साहित्यिक कार्यक्रमों में जाने लगा लेकिन उसे वहाँ साहित्य छोड़ बाकी सब मिलता था, बस साहित्य ही नहीं मिलता था| ईश्वर की कृपा से कहिये या संयोगवश, उसके एक समान अभिरुचि वाले दोस्त ने उसे गुरु की तलाश में व्यग्र होकर भटकते देख लिया तो उसने इसे बुलाया| फिर उसने भावेश को बताया कि तुम्हारा मस्तिष्क जिन प्रश्नों के उत्तर के लिये मचल रहा है, उसका उत्तर तो सिर्फ एक ही व्यक्ति दे सकते हैं और वो हैं मोहन लाल “क्रांतिवीर”| उनके द्वारा बनाये गये लेखन के अष्ट महासूत्र पाणिनी के अष्टाध्यायी की तरह प्रसिद्ध हैं| तुम शीघ्र ही उनसे मिलो| भावेश ने पूछा कि ये कहाँ मिलेंगे तो मित्र ने बताया कि जे एन यू विश्वविद्यालय में तुम किसी से भी पूछोगे वो तुम्हें बता देगा, उनके महात्म्य से सभी परिचित हैं|

 आखिर भावेश की मेहनत रंग लाई और वो विश्वविद्यालय जा पहुँचा | विश्वविद्यालय पहुँचते ही उसने एक कर्मचारी से पूछ लिया कि यहाँ मोहन लाल जी कौन हैं और कहाँ मिलेंगे| कर्मचारी का मुँह विस्मय से खुला रह गया| उसे यकीन ही नहीं हो रहा था कि यह लड़का क्रांतिवीर जी को नहीं जानता है| “तुम क्रांतिवीर जी को नहीं जानते| अरे, साहित्य के बहुत बड़े सूरमा हैं ये| जाने कितने संपादक इनके चरणों मे ज्ञान प्राप्त करके आज धन्य हो गये| इनको मिले पुरस्कार गिनाने बैठूँ तो रात हो जाये, क्रांतिवीर जी साहित्य सूरमा, किताबी तलवारबाज़, सर्वश्रेष्ठ किताबी क्रांतिकारी, साहित्य रत्न, लाल क्रांति का लाल सपूत आदि पुरस्कारों से सुशोभित हो चुके हैं”,  उसने भावेश को एक ही साँस में बताया| भावेश उस पल को कोस रहा था जब उसने इंजीनियरिंग में दाखिला लिया था| इस निगोड़ी इंजीनियरिंग के चक्कर में पड़कर वो न जाने कितनी विभूतियों के दर्शन से वंचित रह गया था| फिर उस कर्मचारी ने भावेश से कहा कि वो क्रांतिवीर जी के आवास पर ही उनसे मिल ले तथा आवास की ओर इशारा कर दिया|

भावेश द्रुत गति से क्रांतिवीर जी के दर्शन को रवाना हुआ| क्रांतिवीर जी विश्वविद्यालय प्रदत्त विशाल बंगले में रहते थे| भावेश जब इनके कक्ष में पहुँचा तो ये ढेर सारे शिष्य व शिष्याओं से घिरे हुये थे, शिष्याओं की संख्या अधिक थी| सामने दीवार पर कोट पहने हुये किसी लंबी दाढ़ी वाले बाबा की तस्वीर लगी थी और पूरे कमरे में लाल जिल्द वाली पुस्तकों का अंबार लगा हुआ था| वातानुकूलित कक्ष में गुरुजी सोफ़े पर विराजमान थे| डेनिम की जींस और कुरता क्रांतिवीर जी पर खूब जँच रहा था| तभी कक्ष में गुरुजी के बेटे का भी प्रवेश हुआ| फोर्ड कार की चाबियाँ लहराते हुये वो बोला- “डैडी, आपने आज मैकडोनल्ड ले चलने का वादा किया था और आप फिर भूल गये| पिछली बार जब केएफसी गये थे तब भी आपकी ही वजह से देर हुई थी और मैं तो चिकन अधूरा ही छोड़कर चला आया था|” क्रांतिवीर जी ने उसे शांत कराया और बोले कि बेटा थोड़ी देर रुक जाओ, इस बालक से मिल लूँ फिर चलता हूँ| भावेश ने तुरंत लपक कर गुरुजी के पैर छूये| गुरुजी ने उसे बैठने का इशारा किया तो वो सोफ़े पर ही बैठ गया| अन्य शिष्यों ने उसे सोफ़े से उतरकर नीचे फर्श पर बैठने का इशारा किया| जब वह फर्श पर बैठ गया तो गुरुजी उससे मुखातिब हुये| उन्होने पूछा- “कहो वत्स, कैसे आना हुआ|
भावेश – “जी, मैं साहित्य का ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूँ| कुछ करना चाहता हूँ और आपके जैसा महान बनना चाहता हूँ|
क्रांतिवीर जी- “अवश्य अवश्य, मेरी शरण में आए हो तो सब शुभ ही होगा| ज्ञान भी मिलेगा और महान भी बनोगे| तुम्हारी हर जिज्ञासा का समाधान होगा|” फिर उन्होने घड़ी पर निगाह डाली और बोले – “तुम थोड़ी देर मेरे साग सब्जी वाले बगीचे में टहलो, मैं जरा मैकडोनल्ड से हो आऊँ, बच्चे जिद किए हैं|” भावेश अन्य शिष्यों के साथ पीछे के बगीचे में चला गया और गुरुजी बर्गर खाने चले गये| बगीचे मे बहुत सारी साग सब्जियाँ लगी थीं और सर्वहारा वर्ग के लोग घास आदि की निराई कर रहे थे| श्रमिकों से बातचीत से पता चला कि गुरुजी उनकी दुख तकलीफ के प्रति बहुत सजग रहते हैं| जैसे ही उन्हे पता चलता है कि सब्जियाँ बढ़ गयी हैं या टमाटर आदि में फल आ गये हैं और उसकी वजह से पौधे भारी हो गये हैं जिससे निराई मे दिक्कत आ रही है तो उनसे रहा न जाता| वो स्वयं आते और पूरे बगीचे को हल्का करके वापस जाते| उनके हृदय मे सर्वहारा वर्ग के प्रति इतनी करुणा देख भावेश का उनके प्रति आदर से भर गया| दो घंटे बाद गुरुजी वापस आये और उन्होने भावेश को पास बुलाया|

भावेश को पूरा घर आश्रम जैसा प्रतीत हो रहा था और क्रांतिवीर जी महान तपस्वी| गुरु जी प्रति वह आदर भाव से भर गया और सीधे उनके चरणों में जाकर बैठ गया| अब वह गुरु के चरणों मे बैठा अपनी जिज्ञासाओं का शमन कर रहा था| गुरु कृपालुता के सागर हैं और शिष्य विनम्रता का| उनके बीच संवाद हो रहे हैं|
क्रांतिवीर जी- “हाँ वत्स, पूछो क्या पूछना है|
भावेश – “लेखन की बारीकियाँ सीखना चाहता हूँ|
क्रांतिवीर जी- “पहले तो ये बताओ कि किस विषय पर लिखना चाहते हो?
भावेश- “जी, प्रेम पर”
गुरुजी के मस्तक पर कई लकीरें तन गयीं| “प्रेम! ये भी कोई विषय है| हर तरफ लूट, भ्रष्टाचार, बेईमानी , शोषण और दमन का बोलबाला है और तुम्हें प्रेम की सूझ रही है| ये प्रेम का साहित्य पूंजीवादियों का खिलौना है जिससे वो भूखी-नंगी जनता को भुलावे और छ्लावे मे रहना चाहते हैं| ऐसा लगता है कि तुमने लेखन के मेरे बनाये अष्ट महासूत्र नहीं पढ़े हैं| वो पढ़े होते तो ऐसे मूर्खतापूर्ण विषय पर लिखने की बात ही न करते|
भावेश- “ये कैसा महासूत्र है गुरुवर?
क्रांतिवीर जी- “ये मेरी वर्षों की साधना का प्रतिफल है, वत्स| इससे उपयोग से कोई भी व्यक्ति महान लेखक बन सकता है| आज साहित्य जगत में जितने भी बड़े बड़े लोग हैं सबने इसी महासूत्र की प्रेरणा से सफलता पाई है| तुम बाकी के प्रश्न करो फिर मैं एक साथ ही सारे सूत्र बताता हूँ|
भावेश (गुरु के सम्मान में थोड़ा और नत होते हुये)– “ धन्य हो गुरुजी, आप ही मुझे महान लेखक बना सकते हैं| अब आप कृपा करके मुझे ये बतायें कि महान रचनाकार बनने का मार्ग क्या है?”
क्रांतिवीर जी – “देखो बेटा, मार्ग तो कई सारे हैं पर अधिकतर मूर्खतापूर्ण और कष्टकारी हैं अतः सब न बताकर तुम्हें वो मार्ग बताता हूँ जिससे आज के दौर में सबसे जल्दी महान रचनाकार बना जा सकता है|”
भावेश अधीर हो उठा|
भावेश – “मैं बड़ा उत्सुक हूँ, जल्दी बताइये गुरुजी.....”
क्रांतिवीर जी – “इतना अधीर न बनो शिष्य| मेरी बात ध्यान से सुनो, साहित्य में पैर जमाने का जो सबसे जमा जमाया और असरदार तरीका है वो ये है कि हमेशा शोषितों वंचितों की बात करो, जल जंगल और जमीन की बात करो, दलित और नारी के नाम पर कुछ भी लिख मारो| इनके नाम का इस्तेमाल करते रहोगे तो यदि तुम कचरा भी लिखोगे तो भी हम लोग उसे ताजमहल ही कहेंगे| और अगर हम कहेंगे तो फिर तो सबको कहना पड़ेगा| कपड़े में धोती-कुरता, कुरता-पायजामा या जींस-कुरता पहनो और साथ में एक झोला भी टाँग लो| फिर दो तीन किलोमीटर दूर से ही लोग समझ जायेंगे कि ये लेखक है|”
भावेश - “पर गुरुजी, ऐसा तो सभी लिखते हैं| आजकल का हर लेखक, कवि यही सब लिख रहा है| मैं नया क्या करूंगा? कथ्य मे नवीनता भी तो हो?”
क्रांतिवीर जी – “सब करते हैं तो क्या हुआ? तुम क्या आसमान से आए हो जो सबसे अलग रहोगे? सब दाँत साफ करते हैं तो तुम नहीं करोगे क्या?”
भावेश – “अरे गुरुजी, नाराज मत होइये| मैं तो बस ऐसे ही कह रहा था| आप जैसा कहेंगे वैसा ही लिखूंगा|
क्रांतिवीर जी – “शुक्र मनाओ कि तुम अच्छे गुरु के समक्ष हो नहीं तो अगर “फलाना” गुरु के मठ मे होते तो अब तक दुई थपरा (दो थप्पड़) पा भी चुके होते|
गुरुजी मन ही मन में सोच रहे हैं कि “फलाना” का मठ तो मेरे वाले से भी बड़ा होता जा रहा है, इसको किसी जुगत से निपटाना पड़ेगा| सारे समय विचारधारा के लिये मरें हम और मलाई खाये “फलाने” |
फिर प्रकट मे भावेश से – “पहले ये बताओ कि तुम्हें कवि बनना है या लेखक?
भावेश – “आप दोनों के बारे में थोड़ा-2 बतायें, जो आसान होगा वही बनूँगा|
क्रांतिवीर जी – “अरे सब आसान है, तुम जो कहो वो बना दूँ, मेरे रहते कैसी चिंता| जिन लोगों को पहले प्रशिक्षण दे चुका हूँ वो तुम्हारी प्रसंशा के गीत गायेंगे और धीरे-धीरे तुम स्थापित साहित्यकार बन जाओगे|
  अच्छा, अब तुम्हें अपने अष्ट महासूत्र बता दूँ जिन्हें अच्छी तरह गांठ बाँध लेना, ये पूरे लेखकीय जीवन में काम आयेंगे| 
फिर गुरु जी ने जो अष्ट महासूत्र का ज्ञान दिया, उसका सार कुछ यूं है :
“अगर तुम्हें कवि बनना है तो उसके सिद्धान्त ये रहे -

1- हे वत्स, लोहे जैसे सूखे पैराग्राफ को चमकदार सोने जैसी कविता में बदल देने वाला ये प्रथम सूत्र सुनो- “जो कुछ भी अनाप शनाप दिमाग में आये उसे एक पैराग्राफ में लिख मारो, फिर उसमें विराम चिन्हों का अविराम इस्तेमाल करो| इससे उस पैराग्राफ के खंड खंड हो जायेंगे और हर खंड कविता की एक पंक्ति के नाम से जाना जायेगा|”
2- वत्स, कविता को बौद्धिक बनाने वाले द्वितीय सूत्र का श्रवण करो- “ऐसा लिखो कि तुम्हारे अलावा किसी को समझ न आए| कभी कभी तो तुम्हें भी समझ न आये कि पिछले महीने लिखी इस कविता का क्या अर्थ है|
3- अब ये कविता के सौंदर्य बढ़ाने वाले सूत्र को मन लगाकर सुनो – “सा, वाला, जैसा आदि शब्दों का अतिशय प्रयोग करो|”
4- यह चतुर्थ सूत्र कविता में चमत्कार पैदा करने के लिए है| कोई मानक हिंदी शब्दकोश ढूंढो और उसमें उपस्थित अति कठिन शब्दों की  सूची तैयार करो| साथ ही देशज गालियों की भी एक सूची बनाओ| फिर इन दोनों को एक साथ मिलाकर प्रयोग करो| इससे लेखन बड़ा ही चमत्कारिक और दीर्घकालिक हो जाता है|”
5- सब पुराना लिखकर भी नयी पीढ़ी का कवि कहलाने का तरीका इस पंचम सूत्र में है| “सब कुछ नया नया लिखो, नया दिन, नई सुबह, नई शाम, नई कार, नया तौलिया, नया कुर्ता, नया चश्मा, नयी मुसीबत, नया सरदर्द आदि”
6- कवि को धर्मनिरपेक्ष घोषित करने वाला यह षष्ट सूत्र सुनो – “धर्म को जितना गरिया सकते हो गरियाओ, देवी देवताओं, धार्मिक प्रतीकों आदि की खूब खिल्ली उड़ाओ| पर इतना ध्यान रहे कि सिर्फ हिन्दू धर्म और उन्हीं के देवी देवता, बाकियों का मजाक उड़ाओगे तो बाकायदा कूंट देंगे और मैं भी कुछ न कर पाऊँगा|”
7- ये सप्तम सूत्र नारीवाद की क्रान्ति का नारा बुलंद करता है| तुम तो पुरुष हो फिर भी बता देता हूँ कि यदि नारीवादी कविता लिखनी हो या किसी नारी को कविता लिखनी हो तो कुछ शब्द डालने से कविता ज्यादा वजनदार और प्रभावी हो जाती है जैसे स्तन, लिंग, बलात्कार, योनि, मासिकधर्म, संभोग, हवस, हस्तमैथुन| ये क्रान्ति के स्वर हैं|
8- आठवाँ और सबसे महत्त्वपूर्ण सूत्र यह है कि प्रेम की कवितायें बिलकुल न लिखना| तुम क्रांति के सिपाही हो| प्यार मुहब्बत की हवाई बातों से तुम्हारा कोई मतलब नहीं होना चाहिए|” इस सूत्र का पालन हर हाल में होना चाहिये| इन सभी महासूत्रों का यदि विधिविधान से पालन किया जाये तो किसी गधे को भी महाकवि बनने से कोई नहीं रोक सकता|
इति श्री कविता अष्ट महासूत्रम ||

“अगर तुम्हें लेखक बनना है तो उसके सिद्धान्त ये रहे -
1-  बड़े बड़े और लच्छेदार वाक्य लिखना सिखाने वाला यह प्रथम सूत्र सुनो – “कुछ भी लिखते जाओ और विराम चिन्ह लगाना भूल जाओ|”
2- शब्द चयन की कुशलता सिखाने वाला द्वितीय सूत्र- “ऐसे शब्द प्रयोग करो कि बिना शब्दकोश के पूरा समझ न आये|”
3- विषय चयन में मार्गदर्शक यह तृतीय सूत्र – “कहानी की पृष्ठभूमि हमेशा संघर्ष की रखो, जमीन छिनना, जंगल उजड़ना आदि| बाकी विषयों से आँख मूँद लो|”
4- भीषण मारक क्षमता वाला और अति प्रभावशाली चतुर्थ सूत्र सुनो वत्स – “यदि कोई नारी पात्र हो तो उसका दैहिक शोषण करवाओ| बलात्कार से नीचे का दैहिक शोषण कहानी में लिखने लायक नहीं है| सीधे बलात्कार करवाओ| अगर वो नारी पात्र दलित, आदिवासी या ग्रामीण है तो सामूहिक बलात्कार दिखाओ| इससे कथा में अत्यधिक प्रभाव आता है|”
5- व्यवस्था को चोट पहुंचाने के लिये सहायक पंचम सूत्र – “नायक गरीब और फटेहाल हो और व्यवस्था से परेशान होकर बंदूक उठा ले| कोशिश करो कि उसके माँ-बाप, भाई बहन आदि को व्यवस्था द्वारा मरते हुये दिखा सको|”
6- आत्मविश्वास का संचार करने वाला यह षष्ट सूत्र आजीवन याद रखना – “पाठक को मूर्ख समझो| तुम जो लिखते हो वही परम सत्य है, मन में ऐसा विचार करो|”
7- चर्चित बने रहने की कुशलता सिखाने वाला यह सप्तम सूत्र सुनो वत्स – “अपने समकालीन रचनाकारों से बेवजह झगड़े करते रहो, उन्हें गरियाते रहो| इससे वे तुम्हें हमेशा याद रखेंगे|”
8- अब यह अंतिम और सर्वाधिक आवश्यक सूत्र – “कभी भूले से भी प्रेम आदि विषयों पर मत लिखो| ये महान लोगों के विषय नहीं हैं|”
इति श्री गद्य अष्ट महासूत्रम ||

भावेश ने प्रतिवाद किया कि प्रेम तो शाश्वत मूल्य है, इस पर तो लिखना चाहिए| क्रांतिवीर जी ने उसे समझाया कि भले ही ये शाश्वत मूल्य है पर हम जिस काल खण्ड में जी रहे हैं वो बड़ा ही विषम है और ऐसी कठिन स्थितियों मे प्रेम की बात करना ही मूर्खता है| रक्तपात की बात करो| क्रान्ति की बात करो| सब कुछ लाल कर दो| बड़ा और महान लेखक व कवि बनने का रास्ता यही है|
भावेश ने दूसरा सवाल पूछा, “गुरुजी, आपने वजन की बात की| ये वजन क्या होता है?
क्रांतिवीर जी – “वजन यानि कि कविता या गद्य की दुरूहता बढ़ाना| आसान शब्दों मे इसे ऐसे समझो कि यदि तुम्हारी रचना साधारण है तो वो हजार लोगों को समझ में आ रही है, उसमें थोड़ा वजन आया तो वो सिर्फ 500 लोगों को समझ आएगी, वजन और बढ़ा तो फिर वो 100 लोगों को समझ आएगी यानि जैसे जैसे वजन बढ़ता जाएगा, समझने वाले घटते जायेंगे|
भावेश - “फिर तो हमें कम वजन की रचना लिखनी चाहिये|
क्रांतिवीर जी -  “अरे नहीं, तुम कौन सा सबके लिये लिख रहे हो| सबके लिये लिखना और महान लेखक होना, इन दोनों के बीच जो अंतर है वो जुगाड़ का है| तुम बस ऐसा लिखो कि वो मुझे समझ में आए, फिर वो 500 लेखकों और समीक्षकों के हाथ में जाये और तुम चकाचक महान लेखक | पुरस्कार फुरस्कार का भी जुगाड़ हो जाएगा|”
भावेश – “अच्छा ! ये वजन कैसे बढ़ाया जाये?
क्रांतिवीर जी – “वजन बढ़ाने के भी कई रास्ते हैं, भारी भरकम शब्दावली उपयोग करना, अंट शंट उदाहरण देना और कुछ रेडीमेड शब्द भी हैं जिनके कविता / लेख में शामिल होते ही वजन बढ़ जाता है जैसे पूंजीवादी, बुर्जुआ, शोषक, साम्राज्यवाद, बाजारवाद, रूस, चीन, शोषित, वंचित, पीड़ित, जन, अभिजात्य, हाशिया, साम्यवाद, नवउदारवाद, सर्वहारा, संघर्ष, वर्ग चेतना, वर्ग संघर्ष, गोलियां, नक्सल, धनपशु, अधिकार, क्रांति, विद्रोह आदि|
और यदि कविता है तो उसमें एक दो पंक्तियाँ ऐसी हों, तुमने लूट लिये हमारे जल जंगल और जमीन, आदिवासी औरतों की पसरी लाशें और उनके बिखरे स्तन आदि ”
भावेश – “पर यह तो वामपंथ की शब्दावली है और लेखक का तो कोई पंथ नहीं होता|”
क्रांतिवीर जी – “अरे मूर्ख, तो क्या मैं तुझे तबसे रामचरितमानस सुना रहा हूँ| कान खोल कर सुन, लेखक सिर्फ और सिर्फ वामपंथी होता है| और किसी को हम लेखक मानते ही नहीं| तुम लिख लिख के मर जाओ, हम लेखक मानेंगे ही नहीं तुमको जब तक तुम मार्क्स के आगे शीश न झुकाओ| बिना मार्क्स लेनिन का सेवन किये साहित्य की उत्पत्ति हो ही नहीं सकती| यदि तुम्हें एक महान लेखक बनना है तो सुबह मार्क्स और एंगल्स की पूजा किये बिना उठो नहीं| दास कैपिटल तुम्हारी बाइबल हो और चे ग्वेरा  की सिगरेट तुम्हारा पवित्र निशान| ये जो मेरा लाल चेहरा देख रहे हो न, ये ऐसे ही लाल नहीं है बल्कि माओ बाबा का आशीर्वाद है|”
भावेश – “पर मेरी किताबें कौन खरीदेगा? ऐसे बासी शब्द और बोझिल वाक्य कौन पढ़ना चाहेगा?”
क्रांतिवीर जी (गरम होते हुये) – “तू पूरा पगलेट है क्या बे? तबसे बकलोली बतिया रहा है| किताबें बेचनी किसको हैं? बाजारवाद फैलाएगा तू? तुम्हें क्या लगता है कि खाली किताब बेचकर जिंदगी चल जाती है? अरे तुझे पैसे कमाने हैं तो उसके और भी रास्ते हैं पर किताब बेचकर पैसे, तौबा तौबा| तुझे तो बाजारवाद के कीड़े ने काटा है| अरे इन किताबों को हम किसी सरकारी पुस्तकालय के हवाले करेंगे और चूंकि पुस्तकालयों मे सरकार का पैसा लगेगा और सरकार हमारे पैसे से चलती है तो हम अपना ही पैसा सरकार से वापस लेंगे|”
भावेश का दिल नहीं माना इस तर्क से तो फिर उसने पूछा – “पर मैं इसे खुले बाजार में बेचना चाहता हूँ|
क्रांतिवीर जी – “अरे जाहिल, तुम पहले वाम को समझो, फिर ये बेचने खरीदने की बात भूल जाओगे|”
भावेश (इस बार थोड़ा क्रोध में) – “क्या खाक समझूँ, इस वाम वाम के चक्कर में हिंदी साहित्य का झंडू बाम हो गया है|

 पूंजीवादी झंडू बाम शब्द सुनते ही गुरु जी के तन बदन में आग लग गयी| क्रोध से उनका पूरा बदन लाल हो गया| गुरु ने उसे आग्नेय नेत्रों से घूरा और एक एक शब्द पर ज़ोर देते हुये बोले – “बेटा, तुमसे ना हो पायेगा| हमें तुम्हारे लक्षण बिलकुल ठीक नहीं लग रहे, तुमसे ना हो पायेगा|

उस दिन से आज तक हिन्दी साहित्य इस इंतजार में है कि ये “तुमसे ना हो पायेगा” का जवाब “हमने कर दिखाया” से देने वाले युवा आगे आयें| और वो शिष्य ऐसे गुरुओं से सचेत रहे|


बुधवार, 15 मई 2013

राम का भोला भक्त

इस धरती पर एक बड़ा सुन्दर देश भारत है| हालांकि आजकल पढ़े-लिखे सभ्य लोग इसे इण्डियाकहते हैं पर चूँकि हम पर सभ्यता का नशा इतना नहीं गहराया है तो हम लोग इसे भारत ही कहते हुये आगे बढ़ते हैं|
कुछ दो तीन सौ वर्ष पहले की बात है| भारतवर्ष में कुछ सैलानी और बनिया आये| उन्हें यह भूमि इतनी रुचिकर लगी कि यहीं पर अपना डेरा डाल लिया| इस भूमि से उन्हें इतना प्रेम था कि इससे उपजा एक-एक दाना अपने मायके भेज देना चाहते थे ताकि वहां के लोग भी देख पायें और ऐसे महान देश से परिचय पा सकें| पर जैसा कि हमेशा होता आया है, हमारे देश में भी वही कहानी दोहरायी गयी| कुछ उपद्रवी तत्वों ने अनावश्यक रूप से उन्हें परेशान करना प्रारम्भ कर दिया| इन्हें अतिथि सत्कार की हमारी उज्ज्वल परम्परा का तनिक भी भान न था| खैर, जैसे तैसे इन लोगों ने उन प्यारे (?) सैलानियों को भगा दिया और हमारे देश के राजा बने चाचा जी”|
चाचा जीने इस देश की फिर से नींव रखी| उनकी भवन निर्माण शैली गज़ब की थी| उनका मानना था कि एक मंजिल को बनने में पाँच वर्ष लगते हैं| पाँच वर्ष बीतने पर अगली मंजिल का कार्य प्रारम्भ होना चाहिये और उसे बनाने में भी पाँच वर्ष ही लगने चाहिये| वो अलग बात है कि अब नींव दरक रही है, भवन हिल रहा है पर चाचा जी पर प्रश्न उठाना मूर्खता होगी| उन्होंने अपनी तरफ से सर्वश्रेष्ठ सामग्री का प्रयोग किया था| वो तो उनके बाद के लोगों ने पहली मंजिल पूरी किये बिना ही आगे की मंजिलें बनानी शुरू कर दीं इसलिये पूरे ढाँचे में समस्या आने लगी और ये अर्धनिर्मित भारत भवन पीसा की मीनार की तरह झुक गया|
हमारे चाचा जी बड़े दोस्ताना स्वभाव के व्यक्ति थे| भारत के पड़ोसी मीनदेश के राजा से इनकी बढ़िया दोस्ती थी| “मीनको भारत इतना प्रिय है कि अक्सर उसके नन्हे शिशु मत्स्यअज्ञानतावश (?) अपना चारा ढूँढने भारत में चले आते हैं| कभी कभी तो जी भर के चबाते हैं| लद्दाख और अरुणाचल जैसे कई तालाब हैं जिनमें तैरना मीनियों को बड़ा प्रिय है| कहा जाता है कि मीनदेश की नींव माओनामक एक महान संत ने रखी थी| "माओके बारे में बहुत सी कथाएं प्रचलित हैं| लोग बताते हैं कि वो बहुत ही दयालु प्रकृति वे संत थे| अपने भक्तों के साथ साथ अपने विरोधियों का भी विशेष ध्यान रखते थे | उनको कर्म-कारण आदि से मुक्त करके मृत्युलोक के नारकीय जीवन से तत्काल मुक्ति प्रदान करते थे| उन्होने अपने समय के समाज की अशुद्धियों को जड़ से समाप्त करने का प्रण लिया था| उस समय की सबसे बड़ी अशुद्धि समाज मे पुरातनपंथियों के रूप में व्याप्त थी जो पुराने रिवाज, तौर-तरीक़े, संस्कृति और पुरानी सोचके गुलाम थे| संत माओ ने परशुराम की तरह प्रतिज्ञा की कि मीनको ऐसे नरों से विहीन कर दूँगा| अब उन्होने सांस्कृतिक शुद्धिकरण के लिये सर्वप्रथम इधर उधर साधना में जुटे सारे साधुओं को एकत्र किया| फिर उन्होने बड़े-2 हवन कुंडों की स्थापना की जिनमें रक्त की आहुति दी गयी| हवन इतने सफल हो रहे थे कि उनकी अग्नि की लपटें और धुंवा भी रक्तिम हो गये थे| पुरातनपंथियों को सामूहिक मोक्ष प्रदान किया गया| पुरातन लोगों से जुड़ी पुरातात्विक महत्व की जगहों का विनाश कर दिया गया ताकि नया सृजन हो सके| हवनकुंड की रक्तिम लपटों ने माओ को अब तक का सर्वश्रेष्ठ सन्त साबित कर दिया| तब से इनके भक्तों ने लाल रंग को अपना प्रतीक चिन्ह बना लिया|
खैर, हम किन बातों में फंस गये| हम भोला की बात कर रहे थे| भोला इस देश के हरित और उर्वर भूमि उत्तर प्रदेश की पैदाइश है| यथा नाम, तथा गुण, भोला अत्यन्त भोला है| गाँव की धूल में धूसरित उसका बचपन उसकी दृष्टि से बड़ा ही शानदार था| उस मूर्ख को क्या मालूम कि उसने शहर रुपी आधुनिक स्वर्ग (?) में जन्म न पाकर कितनी नेमतों से हाथ धो दिया है| खैर, किसी तरह भोला के भी भाग्य जागे और उसे उच्च शिक्षा के लिये राजधानी जाने का अवसर मिला|
राजधानी आकर भोला को पता चला कि वह कितना वंचित था| उसे शहर में एक से बढ़कर एक नयी चीजें मिलीं| उसकी ख़ुशी का पारावार न था| शिक्षा के लिए उसका नामांकन राजपरिवार के मुखिया चाचाजी के नाम पर बने एक संस्थान में हुआ| वैसे वहाँ रहने वाले लोग उसे एक भारत से अलग राज्य समझते हैं और बड़े गर्व से इसे जेएनयू कहते हैं| संस्थान में पहुंचकर भोला को एक और दिव्य ज्ञान हुआ| भोला को पता चला कि भारत के मनीषियों से भी भारी-भरकम (कई कुंतल के) मनीषी विदेशों की पावन धरती पर अवतरित हुये हैं पर मूढ़ भारतीय राम से आगे बढ़ते ही नहीं हैं| जो भी पुरनिया थोड़ा पढ़ लिख लिए, बस उसी राम की कहानी लिखे जा रहे हैं| ये भी कोई ज्ञान है भला|
जैसे जैसे भोला के ज्ञान चक्षु खुलते गये, नये ज्ञान से परिपूर्ण विद्वजनों ने उसकी सहायता बढ़ा दी| उसे भिन्न भिन्न रूपों में ज्ञान की गोलियां खिलाई गयीं, बुद्धि के इंजेक्शन दिये गये| बड़ी बीहड़ किस्म की चर्चायें की गयीं| कुछ ज्ञानी सफाईकर्मियों ने भोला के मगज से सारा कचरा निकाल कर पूरा दिमाग स्वच्छ किया| इस प्रकार धीरे धीरे भोला का शुद्धिकरण किया गया और उसे नया विचार ग्रहण करने योग्य बनाया गया| अब भोला को २४ कैरेट शुद्ध और सर्वोत्तम धर्म में दीक्षा देने की तैयारी प्रारम्भ कर दी गयी| इस शुद्धिकरण में उसका सहपाठी अशोक उसकी भरपूर सहायता कर रहा था|
सर्वप्रथम, हम इस धर्म से परिचित हो लेते हैं| यह धर्म यूरोप के परम ज्ञानी मार्क्स बाबा के द्वारा चलाया गया था| उन्होंने घनघोर तप से अपनी चेतना को पूरे विश्व के मजदूरों तक विस्तृत कर लिया था| उनके बारे में प्रसिद्द है कि वे चेतना के उच्चतम स्तर पर पहुँच चुके थे| उन्होंने ग़रीबों और मजदूरों को संगठित रहने की शिक्षा दीं| इनके अनुयायियों के घर में बहुधा आपको इनके कोट-पैंट वाले चित्र मिल जायेंगे| कुछ लोग इसे नास्तिक धर्मकहते हैं परन्तु इनके अनुयायी आस्तिकों के भी बाप हैं| ऐसा माना जाता है कि वो व्यक्ति पूजा के अत्यधिक विरुद्ध थे पर उनके अनुयायियों ने कबीर के अनुयायियों की तरह उनकी एक न सुनी और उन्हें इतिहासपुरुष और कलियुग के तारनहार का दर्जा दे दिया| इन्होंने भावी पीढ़ी के मार्गदर्शन के लिये बहुत से ग्रन्थों की रचना की जिनमें कम्युनिस्ट मेनिफेस्टोऔर ‘’दास कैपिटलका महत्त्व गीता और रामायण के समकक्ष है| सन्त माओ भी इन्हीं के एक प्रचण्ड भक्त थे| सन्त माओ ने इनके दर्शन में कुछ सुधार भी किये जैसे कि पुरातनपंथियों को तत्काल मोक्ष की व्यवस्था और धर्म की लाल यूनिफ़ार्म|
भारत में उनके भक्त बहुतायत में हैं और भोला भी उसी भक्तमंडली में दीक्षित हो रहा था| अब उसको उसके धर्म और ज्ञान की कमियाँ बताई जाने लगीं| और ये भी कि ये नया धर्म कितना पूर्ण है| अब भोला को धीरे-२ बुरा लगना प्रारंभ हुआ| गुरु जी बोले – “तुम्हारे राम ने क्या किया है? जो तुम राम के खूंटे से बंधे हुए हो? जरा बताओ तो क्या किया है तुम्हारे भगवान राम ने|” गुरूजी का पूरा जोरतुम्हारेशब्द पर था| भोला ठहरा भोला, इतना तो उसने सोचा न था पर भोला ने भी कुछ दिमाग लगाया और बड़ा तर्कपूर्ण उत्तर दिया कि चलिये, थोड़ी देर के लिये सोचिये कि मैं राम का खूंटा छोड़ने को तैयार हूँ| पर आप भी तो मुझे नये खूंटे से बाँध रहे हैं| मैं छूटा कहाँ बंधन से| अब गुरूजी के मस्तक पर तेज आ गया| उन्होंने समझाया- अरे मूर्ख, ये बंधन नहीं है, मुक्ति है| और जिसे तू खूंटा कह रहा है वह खूंटा नहीं है| तू नासमझ है| देख , यह हरा भरा चारागाह है, जितना चाह उतना मुंह मार| अगर राजधानी के चारागाह से पेट न भरे  तो बीहड़ों में भी जा सकते हो|’ अब भोला के कान खड़े हो गये| बोला – ‘बीहड़ों में ही जाना है तो राम क्या बुरे हैं| आखिर किष्किन्धा में जो मदद उन्होंने की, ऐसी कोई मिसाल है क्या? आखिर मैं राम को क्यूँ छोडूँ? मेरी जमीन में राम हैं, पवन में राम हैं, हमारे सुख में राम हैं, दुःख में राम हैं, जन्म में, मरण में, विवाह में, विकास में, विनाश में हर जगह हैं मेरे राम| कहाँ जाऊँगा मैं उन्हें छोड़कर? ’ गुरूजी अब समझ गये थे कि सारी मेहनत व्यर्थ गयी| ये तो कुपात्र निकला, मूर्ख कहीं का| फिर उन्होंने अंतिम प्रयत्न किया कि चलो, हमेशा के लिए नहीं तो कुछ ही दिन के लिये राम को तजो और हमारी मंडली में आओ| फिर तुम खुद ही समझ जाओगे|
भोला की सहज और मूढ़ बुद्धि ने ऐसी बात की जो उसे कतई नहीं कहनी चाहिये थी| बोला – ‘यही निमंत्रण मैं आपको देता हूँ| अपनी मण्डली से कहिये कि कुछ दिन राम नाम भजे, अन्य देवताओं व संतों को भूल जाये, राम को समझे और राममय हो| फिर अपना निष्कर्ष बताये|’ भोला का इतना कहना था कि गुरूजी ने उसको तुरंत चले जाने के लिये कहा और बोले कि ठीक है, मैं इस पर विचार करूंगा| विश्वस्त सूत्रों से खबर मिली है कि गुरूजी आज तक उस पर विचार कर रहे हैं और अनिर्णय की स्थिति में हैं| एक और खबर है पर इस पर विश्वास मत करियेगा| कुछ मूर्ख कहते हैं कि उसके बाद से गुरूजी व उनके शिष्यों ने भोला से कभी बात नहीं की|
भोला के सहपाठी और अब तक के उसके पथप्रदर्शक की भूमिका निभाने वाले अशोक को ये बात नागवार गुजरी| अशोक को लाल रंग में रंगे अभी थोड़ा ही समय हुआ था| उस पर लाली भरपूर मात्रा में छायी हुई थी| वह नयी पीढ़ी का अघोषित प्रवक्ता था जिसकी बातों और साँस से भी सिर्फ लाल रंग ही टपकता था| अशोक स्टार प्रचारक था या दूसरे शब्दों मे कहें तो सन्त का रंगरेज था| नये लोगों लाल रंग मे रंगने के लिये उसने तमाम विधियाँ विकसित की थीं| उसने भोला को समझाया – “तुम्हें गुरुजी से ऐसे बहस नहीं करनी चाहिये थी|” भोला ने पूछा – “क्यों? मैंने क्या गलत कहा?”
अशोक – “तुमने सही क्या कहा? तुम्हारे अंदर तनिक भी इतिहासबोध है कि निरे बुद्धू ही हो?”
भोला – “कैसा इतिहासबोध?”
अशोक-तुम्हें पता नहीं है क्या कि इस देश में जितना कुछ अच्छा हो रहा है उसके पीछे सिर्फ लाल रंग की प्रेरणा कार्य कर रही है| हमारे प्रथम राजा चाचा जीको भी लाल रंग से बहुत लगाव था| तुमने कभी सोचा कि चाचा को गुलाब इतने प्रिय क्यों थे? कभी इस पर गौर किया कि उन्हें बच्चों से इतना लगाव क्यूँ था?”
भोला (चकित होते हुये उत्सुकता से) – “मैंने तो कभी नहीं सोचा| क्या कारण था? मुझे भी बताओ|”
अशोक – “वो इसलिये क्योंकि गुलाब का रंग लाल होता है| और बच्चों को भी लालकहते हैं| अब समझे उनकी सिद्धांतनिष्ठा| यहाँ तक कि उन्होने अपने नाम में भी लाल लगा रखा था|”
भोला – “अच्छा !, ये तो मुझे पहली बार किसी ने बताया है|”
अशोक - "तुम्हें तो ये भी पता नहीं होगा कि शादी की रात पर दुल्हन लाल जोड़ा क्यों पहनती है?"
भोला ने प्रश्नवाचक दृष्टि से अशोक को देखा| अशोक ने उसकी जिज्ञासा का सम्मान करते हुये आगे की बात कही|
अशोक - "क्योंकि औरत सर्वहारा वर्ग की है| और शादी की रात्रि मे ही वह शपथ लेती है कि आज से शोषक को कभी चैन से नहीं रहने देना है, उसकी पूँजी पर पूरा कब्जा करना है और उसको आजीवन कारावास की सजा देनी है| बड़ी अजीब बात है कि तुम्हारे पूर्वजों को ये सब पता था पर तुम पाखंडियों ने सब गुड़ गोबर कर दिया|"
भोला- ये सब तो हमें किसी ने कभी बताया ही नहीं|”
अशोक – “तुम्हें तो और भी बहुत सी बातें नहीं पता होंगी| तुम लोग सत्यनारायण की कथा सुनते हो, पूरी कथा में पंडित बस यही बताता है कि इसने सुनी तो इतना फायदा हुआ, उसने नहीं सुनी तो तबाह हो गया पर इतना डराने के बाद भी कथा नहीं सुनाता| तुम सुनने का आग्रह भी नहीं करते|”
भोला – “अरे सचमुच, कथा तो कहीं है ही नहीं|”
अशोक (उत्साहित होकर) – “और सुनो, तुम्हारे गरुण पुराण में मानव को जिस तरह से कीड़े-मकोड़ों से भी बदतर प्रस्तुत किया गया है, जैसी अमानवीय सजाओं का वर्णन है कि उसे पढ़कर उबकाई आती है|”
भोला- हाँ, गरुण पुराण अप्रासंगिक है आज| हम तो उसे कब का नकार चुके हैं|”
अशोक – “और मनु स्मृति? उसको भी नकार चुके हो?”
भोला – “अवश्य, आप बताइये| आपने किसी को मनुस्मृति पढ़ते देखा?”
अशोक (उत्तेजित होकर) – “तुम लोग चोरी छिपे पढ़ते हो, जब हम सो जाते हैं तब पढ़ते हो| तुम सब के सब ढोंगी हो| तुमने मार्क्स से कुछ नहीं सीखा|”
अब भोला के तैश में आने की बारी थी|
भोला – “अच्छा ! सारा ज्ञान आपने ही ले लिया| तभी मार्क्स, एंगेल्स और लेनिन को ब्रम्हा, विष्णु, महेश की तरह पूजते हो|”
भोला ने अनर्थ कर दिया| मार्क्स पर टिप्पणी ! अशोक के लिये यह असह्य था| फिर भी उसने बहुत जब्त का परिचय दिया और भोला से चर्चा जारी रखी| उसने कहा – “हम किसी को नहीं पूजते, हम प्रेरित होते हैं| पूजते तो तुम लोग हो| धर्म का अन्धकार छाया है तुम पर| और तुम्हारा तुलसिया, बीबी ने लात मार दी तो राम भजने लगा और उसी उन्माद में जो गप्प लिख दी उसी को तुम पढ़े जा रहे हो बड़े मजे से| बांह पिराई तो हनुमान बाहुक लिख मारा| तुम सब हमेशा से पाखंडी हो| साहित्य को ही देखो, जाने कितने जनवादी कवियों ने एक से एक महान रचनायें लिखीं पर तुम पढ़ते क्या हो? सांप्रदायिक कविता सरस्वती वंदना’, निराला घोर सांप्रदायिक था| ऐसे हिन्दू देवियों की वंदना लिखकर उसने साहित्य को भी दूषित कर दिया है और तुम सब इसी के लिये उसे सर पे चढ़ाये रहते हो| मुझे सब पता है तुम्हारे पैंतरे| भक्त पर भक्ति का दौरा पड़ता है तो वो कहता है "मुझे तो कुछ महसूस ही नहीं हो रहा. मैं तो भक्ति के सागर में डूबा हूँ"| इस धर्म, भक्ति और आध्यात्मिकता ने ही सारा सत्यानाश किया है | और सत्यानाश भी किसका? सर्वहारा का| तुम सब इतने बड़े घाघ हो कि सर्वहारा को धर्म का झुनझुना पकड़ा रखा है| देखना, एक दिन फिर से माओ बाबा आयेंगे और बाबासूय यज्ञ करेंगे| फिर से दक्षिण जैसी अपवित्र दिशा में साधना करने वालों को पुनः बैकुंठ धाम भेजा जायेगा|”
भोला ने कहा: अच्छा, एक दिन फिर से वे आएंगे? अर्थात तुम भी उनके अवतार की राह देख रहे हो?
अशोक को बहुत तेज क्रोध आया, एकदम दुर्वासा छाप| तमक कर बोला – “हाँ हाँ, लेंगे| तुम्हारा क्या बिगड़ता है बे| तब से बहस किये जा रहा है| हर युग में एक मार्क्स और एक माओ जन्म लेंगे और तुम जैसे ढोंगियों से धरा को मुक्त करेंगे तुम क्या सझते हो संभवामि यूगे यूगे पर तुम्हारा एकाधिकार है? सुनो, जब जब इस दुनिया में पूंजीवादी पाप बढ़ेगा, सर्वहारा की रक्षा के लिए मार्क्स, माओ लेनिन जन्म लेते रहेंगे और तुम्हारे जैसे प्रतिक्रियावादी बुर्जुआ वर्ग को तो पहले खत्म करेंगे| बाद में पूंजीवादियों से निपट लिया जाएगा| तुम सब डरते हो बाबा से, उनके पुण्य प्रताप से, बस हमेशा उनकी निंदा में लगे रहते हो गधों| कभी उनके उपदेशों को समझा तुमने? कैसे समझोगे, तुम पर तो  तुलसिया का नशा छाया है
भोला अवाक था|
भोला ने निःश्वास ली और मन ही मन सोचा कि आज इन साम्प्रदायिक (?) कवियों के जाते ही तुम्हारा साहित्य संसार बिना ग्राहक का बाजार हो गया है पर प्रकट में कुछ न बोला| भोला के दिमाग में बचपन में गाँव के रमई काका के बताये नीतिवचन तैर रहे थे, “उपदेशो हि मूर्खाणाम् प्रकोपाय न शान्तये। उसे अटल बिहारी वाजपेयी की वो कविता भी याद आयी जो उन्होंने लेनिन की समाधि देखकर लिखी थी|
“क्या सच है, क्या शिव, क्या सुंदर?
शव का अर्चन,
शिव का वर्जन,
कहूँ विसंगति या रूपांतर?
      
वैभव दूना,
अंतर सूना,
कहूँ प्रगति या प्रस्थलांतर?

जब भोला दरवाजे से बाहर निकला तो बाहर उसे दो परछाइयाँ दिखाई दीं, बहुत दुखी और उदास| ध्यान से देखा तो पता चला कि संत मार्क्स और माओ की भटकती आत्मायें हैं| संत मार्क्स अपना सर पीट रहे थे और माओ बाबा अपने बाल नोच रहे थे|