'रॉय' फिल्म लेखकों को सताने वाली एक मानसिक स्थिति के ऊपर बनी है जिसे
अंग्रेजी में "राइटर्स ब्लॉक " कहते हैं| इस स्थिति में लेखक को कुछ नहीं
सूझता कि क्या लिखा जाये|
पर मजे की बात ये कि ये फिल्म हिंदी के क्रिटिक्स को ही नहीं समझ आ रही| इसको मिले ख़राब रिव्यू तो यही कह रहे हैं| फिल्म क्रिटिक्स को ये बात भी समझनी चाहिये कि कौन सी फिल्म किस तरह के दर्शक वर्ग के लिये है|
'रॉय', 'पीके', 'लंचबाक्स' और 'हैपी न्यू ईयर' चारो के दर्शक वर्ग अलग हैं और इनकी गुणवत्ता मापने का पैमाना भी एक नहीं हो सकता|
पर मजे की बात ये कि ये फिल्म हिंदी के क्रिटिक्स को ही नहीं समझ आ रही| इसको मिले ख़राब रिव्यू तो यही कह रहे हैं| फिल्म क्रिटिक्स को ये बात भी समझनी चाहिये कि कौन सी फिल्म किस तरह के दर्शक वर्ग के लिये है|
'रॉय', 'पीके', 'लंचबाक्स' और 'हैपी न्यू ईयर' चारो के दर्शक वर्ग अलग हैं और इनकी गुणवत्ता मापने का पैमाना भी एक नहीं हो सकता|
फिल्म की गुणवत्ता इस बात से मापी जानी चाहिये कि वो अपने दर्शक वर्ग का
मनोरंजन करने में कितनी सफल रही| एक ही डंडे से हाँकेंगे तो अच्छी फिल्म को
ख़राब और खराब फिल्म को अच्छी कह जायेंगे|
//फिल्म बोझिल है, रिलेक्स होकर देखने वालों की नहीं है| पूरा अटेंशन मांगती है|
//फिल्म बोझिल है, रिलेक्स होकर देखने वालों की नहीं है| पूरा अटेंशन मांगती है|
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