शनिवार, 20 जून 2015

हिंदी प्रेमी के हसीं सपने

कैसा होता कि विज्ञान की सारी जानकारी इंटरनेट पर हिंदी में उपलब्ध होती? विज्ञान का एक कॉपीराइट मुक्त कोश होता।
कोई कल्पना भी नहीं कर सकता कि इससे कितने लोग लाभान्वित होंगे। हिंदी माध्यम के बच्चों के लिये पाठ्य पुस्तक, शिक्षक और सहपाठियों को छोड़कर अन्य कोई स्रोत नहीं है जहाँ वो अपनी जिज्ञासा मिटा सकें / बढ़ा सकें। यह कोश विज्ञान के समग्र अध्ययन के बहुत काम आयेगा।
और इसके लिये चाहिये क्या? विज्ञान की पृष्ठभूमि वाले कम से कम 20 उत्साही लोग जो सरल भाषा में वैज्ञानिक तथ्यों को लिख पायें। और अपने इस समय व श्रम के बदले में कुछ भी पाने की उम्मीद न रखें।

पाठकीय समीक्षा - एक गधे की आत्मकथा / कृश्न चन्दर

“एक गधे की आत्मकथा” कृश्न चन्दर जी की बहुत ही सधी हुई व्यंग्य कृति है| आप पूरी पुस्तक पढ़ डालिये, फिर भी आप इसी पसोपेश में रहेंगे कि ये आदमी के रूप में गधा है या गधे के रूप में आदमी|
इस संग्रह में उन्होने गधे के माध्यम से पूरे सामाजिक, राजनीतिक व प्रशासनिक ढाँचे पर प्रहार किये हैं| मुख्य पात्र एक गधा है| उसी के मुख से सारी कहानी कही गयी है| कैसे वह बाराबंकी में ईंट ढ़ोने के काम से छुटकारा पाकर देश की राजधानी दिल्ली गया, कैसे वहाँ रामू धोबी से मुलाक़ात हुई, और रामू धोबी की मृत्यु के बाद उसके परिवार के भरण पोषण हेतु गधे ने कहाँ कहाँ चक्कर लगाये, कितनी ठोकरें और लातें खाईं, इन सब का बड़ा ही सजीव और रोचक वर्णन है| पुस्तक के प्रारम्भ में ही लेखक कहता है – “इसके पढ़ने से बहुतों का भला होगा”|



गधा रामू धोबी के यहाँ काम करने लगा था| एकाएक रामू की मृत्यु मगरमच्छ के हमले से हो जाती है| अब उसका परिवार भूखों मरने की हालत में आ जाता है| गधा मुसीबत के वक्त में उनका साथ देने का निश्चय करता है| गधे की खासियत है कि “वो इंसान की भाषा में बोलता है” | जब लोग आश्चर्य करते हैं कि ये तो गधा है, इंसान जैसा कैसे बोल रहा है तब कृश्न चंदर के लेखन का पैनापन देखने लायक है| उनका गधा तपाक से उत्तर देता है कि जब इंसान इंसान होकर गधों के जैसा बोल सकता है तो गधा इंसान जैसा क्यूँ नहीं बोल सकता| लेखक ने एक जगह लिखा है – “नई दिल्ली में ऐसे तो बहुत लोग होंगे जो इंसान होकर गधों की तरह बातें करते हों लेकिन एक ऐसा गधा, जो गधा होकर इंसानों की सी बात करे, हेडकान्स्टेबल ने आज तक देखा सुना न था।”
रामू के परिवार के लिये जीविका के बंदोबस्त के लिये बेचारा गधा इस कार्यालय से उस कार्यालय घूमते- घूमते परेशान हो जाता है| हर कोई उसे अगले ऑफिस भेजकर छुटकारा पा लेता है | वित्त मंत्री, मत्स्य विभाग, मजदूर यूनियन आदि से निराश होकर आखिर में गधा प्रधानमंत्री नेहरू से मिलने का निर्णय करता है| नेहरू से गधे की मुलाक़ात बड़ी रोचक है| ज्ञान विज्ञान, पंचशील, पंचवर्षीय योजना आदि विषयों पर नेहरू और गधे का संवाद होता है| नेहरू गधे की सवारी भी करते हैं| फिर तो गधे की किस्मत ही बदल जाती है| उसके बाद तो वो गधा पूरे देश में प्रसिद्ध हो जाता है| विदेशी पत्रकार भी उसके साक्षात्कार लेते हैं| उसके बाद गधे के साथ क्या क्या होता है, बहुत ही रोचक घटनाक्रम है|
पूरी पुस्तक में लेखक ने अपनी मजबूत पकड़ बनाये रखी है| भाषा प्रांजल और स्वाभाविक है, शैली मारक है| शोषित वर्ग के लिये सहानुभूति लेखक की हर पंक्ति से प्रकट होती है| गधे को माध्यम बनाकर लेखक ने सौदर्य प्रतियोगिताओं के आयोजन पर प्रश्नचिन्ह लगाए हैं| सौंदर्य की परिभाषायें दी हैं| एक बड़ा मजेदार प्रसंग है जब गधा साहित्य अकादमी की बैठक में पहुँच जाता है| गधा सवाल करता है कि उनके लिये आप क्या कर रहे हैं जो बहुत अच्छा लिख सकते थे पर भूख और गरीबी ने उन्हें लिखने नहीं दिया|
उदाहरणस्वरूप पुस्तक के कुछ अंश प्रस्तुत हैं:
1- बाराबंकी से दिल्ली यात्रा के बीच:
“मौलवी- अच्छा, यह बताओ, तुम हिन्दू हो या मुसलमान ? फिर हम फैसला करेंगे।
मैं-हुजूर, न मैं हिन्दू हूं न मुसलमान। मैं तो बस एक गधा हूं और गधे का कोई मज़हब नहीं होता।
मौलवी-मेंरे सवाल का ठीक-ठीक जवाब दो।
मैं-ठीक ही तो कह रहा हूं। एक मुसलमान या तो हिन्दू गधा हो सकता है, लेकिन एक गधा मुसलमान या हिन्दू नहीं हो सकता।
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2- गधे का दिल्ली आगमन और उसके द्वारा देखी गयी दिल्ली
//दिल्ली का भूगोल
“इसके पूर्व में शरणार्थी, पश्चिम में शरणार्थी, दक्षिण में शरणार्थी और उत्तर में शरणार्थी बसते हैं। बीच में भारत की राजधानी है और इसमें स्थान-स्थान पर सिनेमा के अतिरिक्त नपुंसकता की विभिन्न औषधियों और शक्तिवर्धक गोलियों के विज्ञापन लगे हुए हैं, जिससे यहां की सभ्यता तथा संस्कृति की महानता का अनुभव होता है। एक बार मैं चांदनी चौक से गुज़र रहा था कि मैंने एक सुन्दर युवती को देखा, जो तांगे में बैठी पायदान पर पांव रखे अपनी सुन्दरता के नशे में डूबी चली जा रही थी और पायदान पर विज्ञापन चिपका हुआ था,
असली शक्तिवर्धक गोली इन्द्रसिंह जलेबी वाले से खरीदिए !’ “
मैं इस दृश्य के तीखे व्यंग्य से प्रभावित हुए बिना न रह सका और बीच चांदनी चौक में खड़ा होकर कहकहा लगाने लगा।“
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“दिल्ली में नई दिल्ली है और नई दिल्ली में कनाटप्लेस है। कनाटप्लेस बड़ी सुन्दर जगह है। शाम के समय मैंने देखा कि लोग लोहे के गधों पर सवार होकर इसकी गोल सड़कों पर घूम रहे हैं। यह लोहे का गधा हमसे तेज़ भाग सकता है, परन्तु हमारी तरह आवाज़ नहीं निकाल सकता। यहां पर मैंने बहुत से लोगों को भेड़ की खाल के बालों के कपड़े पहने हुए देखा है। स्त्रियां अपने मुँह और नाखून रंगती हैं, और अपने बालों को इस प्रकार ऊंचा करके बांधती हैं कि दूर से वे बिल्कुल गधे के कान मालूम होते हैं। अर्थात् इन लोगों को गधे बनने का कितना शौक है, यह आज मालूम हुआ।“
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“यह तो कोमलांगियों की मजबूरी है कि वे सदा सुन्दर गधों पर मुग्ध होती हैं| “
~ पद्म भूषण कृश्न चन्दर (1914-1977)

Lords of the flies Review


शानदार फ़िल्म। बालमन का बेहतरीन चित्रण। आशावाद और निराशावाद का द्वन्द, भय और साहस का द्वन्द
समाज से दूर एक टापू पर प्राकृतिक अवस्थाओं में रहते हुये कैसे हमारा जंगलीपन और आदिम युग का मानव वापस आता है ये फ़िल्म उसका बहुत ही सुंदरता से वर्णन करती है।
बच्चों का एक ग्रुप जो कि हवाई दुर्घटना में एक समुद्री टापू पर फँस जाता है और उसके बाद उसमें हिंसा निराशा बर्बरता आदि बढ़ती हैं।
बच्चों के दो ग्रुप हो जाते हैं एक को लगता है कि उन्हें कोई नहीं बचायेगा अब ये जंगल ही उनका घर है। दूसरा ग्रुप इस उम्मीद में रहता है कि कभी कोई जहाज उनकी मदद को आ जायेगा। दूसरे ग्रुप की संख्या धीरे धीरे कम होती है और पहले ग्रुप की बढ़ती जाती है। पहला ग्रुप मानता है कि हम जंगल में हैं तो शहरियों की तरह रहना बेवकूफी है, हमें जंगलियों की ही तरह रहना चाहिये।
अंत बहुत सुन्दर बन पड़ा है।

आम आदमी का सीन

वो हमेशा चुप रहता है
वो सुख और दुःख दोनों को दबाकर जीता है
वो जुल्म सहता है , जुल्म होने देता है
वो जो सबसे बड़ा तमाशबीन है
वो जो दफ्तरों में धक्के खाता है
जो हर काम में लिये लाइन में लग जाता है
वो जो घर से जल्दी निकलता है
और रात को देर से जाता है
वो जो मेहनत करता है
और मुनाफा बिचौलिया खाता है
वो जो इतना दीन है
कहने को तो बहुत है पर
आगे का हाल फिर कभी
हाँ, इतना बता दूँ कि
ये आम आदमी का सीन है।

बहाव


तुम सुनते रहे, मैं कहता रहा
तुम रोकते रहे, मैं बहता रहा
पर जब बहाव बढ़ता गया
तो तुम भी क्यूँ न बह गये,
आखिर तुम किनारे ही क्यूँ रह गये ??

खुशियाँ बाँटें

शरद ऋतु की एक शाम। किशोरवय मंजरी अपने द्वार पर टहल रही थी। शाम की सुहानी हवा का आनंद लेते हुये उसे एक ख्याल आया। क्यों न वो अपने द्वार पर फूलों के पौधे लगा दे। जब वो खिलेंगे तो कितना सुन्दर हो जायेगा उसका द्वार।

लड़कियों में घर बार को सजा कर रखने की प्रवृत्ति बचपन से ही होती है। मंजरी में भी ये शौक भरपूर था। फिर क्या था। उसने ढेर सारे गेंदे के फूल लगा दिये अपने दरवाजे पर। उनको समय पर पानी देना, साफ़ सफाई और किसी प्रकार के नुकसान से उनकी सुरक्षा करने का काम मंजरी ने पूरी तन्मयता से किया। और एक दिन आया जब उसके दरवाजे पर फुलवारी लहलहा उठी। छोटे बड़े, हलके गाढ़े तमाम तरह के गेंदे के फूलों ने मंजरी के घर की खुबसूरती में चार चाँद लगा दिये।

उसी गाँव में एक माली रहता था। वो कभी कभार मंजरी के घर आया जाया करता था। इस बार जब वो आया और इतने सुन्दर फूलों की क्यारियाँ देखी तो पूछ बैठा कि क्या मैं इनमें से कुछ फूल तोड़ सकता हूँ? घर वालों ने कहा कि इन फूलों की मालिक तो मंजरी है। उसी ने बड़े शौक से इन्हें लगाया है और वही इनकी देखभाल करती है। बेहतर होगा कि तुम मंजरी से पूछ लो। माली ने बात समझ ली और मंजरी से फूलों को तोड़ने की अनुमति चाही। मंजरी ने अनुमति तो दे दी पर साथ में ये शर्त भी रखी कि चाहे जितने फूल तोड़ो पर हर पेड़ कर कुछ फूल बचे रहने चाहिये। फुलवारी की खूबसूरती नहीं जानी चाहिये। माली ने तुरंत हाँ कर दी।
 
उस दिन के बाद से माली रोज आता और फूल तोड़कर ले जाता। कई दिन बीतने के बाद एक दिन मंजरी ने माली से पूछा कि आखिर वो इन फूलों का करता क्या है। माली मुस्कुराया और बोला - 'जी, मैं तो माली हूँ। और क्या करूँगा। बाजार में बेच देता हूँ। सही कीमत मिल जाती है। कुछ पेट पालने का सहारा हो जाता है।'
'तो तुम खुद भी फूलों की खेती क्यों नहीं करते?' , मंजरी ने उत्सुकता से पूछा।
 
'कहाँ से करें बिटिया, हमार पास खेत ही कितने हैं। जो थोडा बहुत घर आँगन में जमीन है, उसमें फूल लगा रखे हैं पर उतने से गुजारा नहीं हो पाता।' माली ने लंबी सांस ली। ये सुनते ही मंजरी को एक विचार सूझा। उसने माली से कहा कि क्यों न तुम तरह तरह के फूलों के पौधे सारे गाँव वालों में मुफ़्त में बाँट दो। सबके पास जमीनें हैं। उन्हें तुम्हारे फूल लगा कर ख़ुशी होगी। फिर तुम जैसे मेरे फूल ले जाते हो वैसे ही उनसे भी पूछ लेना। मुझे तो लगता है कि कोई भी मना नहीं करेगा।
 
माली को ये विचार बहुत सुन्दर लगा। वो उत्साह से भर गया। उसने सारे गाँव वालों से बात की। सब ख़ुशी ख़ुशी तैयार हो गये। फिर क्या था, उसने सबको पौधे लाकर दिये और महीने भर के अंदर ही पूरा गाँव खुशबू से भर गया। जिधर भी नजर उठती एक से एक सुन्दर फूल खिले दिखते। माली के थोड़े से फूल ले लेने पर किसी को कोई आपत्ति न थी। सबके थोड़े थोड़े फूल मिलकर अब माली के पास इतने फूल आ जाते थे जिससे उसकी कमाई बढ़ गई और वो पहले से अधिक सुखी हो गया।

इस प्रकार मंजरी के प्रकृति प्रेम और सहज बुद्धि की वजह से पूरे गाँव में फुलवारियाँ खिल उठीं और माली की भी चिंता दूर हो गयी।

आपका शौक भी कल आपको आगे ले जा सकता है या किसी और को आगे बढ़ने में मदद कर सकता है इसलिये चिंगारी जलाये रखिये, शौक बनाये रखिये। सफलता मिलेगी, जरूर मिलेगी।
-- अवनीश कुमार

पूछो न कुछ परिचय, मित्र !

पूछो न कुछ परिचय, मित्र !
समझो इतना आशय, मित्र !
बस मिलो सदा ऐसे हँसकर,
अब रहो सदा उर में बसकर,
हर क्षण हो जीवन का सुखकर,
कर लो इतना निश्चय, मित्र !
चहुं ओर जब पुष्प खिलेंगे,
जब अवरोधों के मूल हिलेंगे,
जीवन पथ पर पुनः मिलेंगे,
करिये ना कुछ संशय, मित्र !

शनिवार, 6 जून 2015

हे देवराज इंद्र, आपकी अप्सरायें कहाँ हैं

कुछ लोग परफ्यूम / डियो के इतने दीवाने होते हैं कि लगता है एक ही बार में आधी बोतल उड़ेल ली है। शायद डियो लगाते ही लड़कियों द्वारा घेर लिये जाने और पीछा करने वाले विज्ञापनों का सबसे ज्यादा असर इन्ही पर होता है।

ऐसे जीवों से अक्सर पाला पड़ता है। आज ही लोकल में एक डियोप्रेमी मिल गये। हमउम्र थे और जमकर जियो का प्रयोग किया था। इतना अधिक कि खुशबु के बजाय वो बदबू में बदल गया था। लोकल ट्रेन्स में आपको मूवमेन्ट के ज्यादा विकल्प नहीं होते। जैसे हैं वैसे पड़े रहिये। भाई, सर घूम गया। आसपास के लोग भी मुँह फेर कर ऐसे बैठे थे जैसे खाप पंचायत ने उसको विरादरी से बाहर कर दिया हो।
एक तो पहले से ही हार्ड डियो, दूसरे उसकी हार्ड डोज ..
हे देवराज इंद्र, आपकी अप्सरायें कहाँ हैं .....