रविवार, 10 मार्च 2013

कवि

कवि को निष्कपट होना पड़ता है, मन का मृग इधर उधर दौड़ता है उसको तटस्थ होकर देखता है कवि| फिर उसकी गति से उसके हृदय के भावों को ताड़ता है कवि| और कूची उठाता है अपनी कलम के जरिये, रच देता है हरिणा का संसार|
वो संसार जिसमें दुख भी है, सुख भी है, उमंग है, उल्लास है तो नाउम्मीदी भी है, हरे भरे मैदान हैं, घने जंगल हैं तो जलता रेगिस्तान भी है, सूखे पहाड़ भी हैं, हिरण की उन्मुक्त छ्लांग है तो शिकारी से बचने के लिए कातर आखों मे अश्रु भी हैं| ये अश्रु सिर्फ अपनी जान बचाने के लिए नहीं है, ये अश्रु तो पूरी संतति के अस्तित्व का मूक प्रश्न हैं|
- अवनीश सिंह

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