मंगलवार, 5 मार्च 2013

कैसा हो रचनाकार


कैसा हो रचनाकार:

रचनाकार (कवि / लेखक) इस दुनिया के समानांतर एक और दुनिया रचते हैं| वो दुनिया जिसका मूल तो यही दुनिया है पर कहीं न कहीं इसे और बेहतर और इन्सान के रहने लायक बनाने की छटपटाहट भी उसमें मौजूद है|
रचनाकार रचता है पात्र, परिस्थितियां और संवाद जो उसकी बात कह सकें| इसे कहलवाने के हर एक के अपने तरीके हैं|

आजकल ये चर्चा बहुत जोरों पर है कि जो आपने खुद अनुभव नहीं किया है वो आप अच्छा नहीं लिख सकते| यानि अगर लेखक ने अपने पात्रों के दुःख-सुख को प्रत्यक्ष अनुभव किया है या ये उसी की आपबीती है तो वो ज्यादा अच्छा लिख सकता है| कहने-सुनने में ये विचार अच्छा लगता है पर अगर गहराई से देखें तो हम पायेंगे कि ये विचार कह रहा है कि लेखक प्रजाति होनी ही नहीं चाहिए|अगर किसी को कुछ लिखना है तो वो अपने अनुभव लिखे| यदि यही करना है तो लेखक की क्या आवश्यकता? ऐसे प्राणी की क्या जरूरत जो सबकी कहानी कहता हो, सबके गीत गाता हो?

लेखक का होना जरुरी है:
लेखक / कवि का होना जरूरी है| वो ऐसा प्राणी है जो सबकी कथा कहता है, उनकी भी, जो अपनी कथा खुद नहीं लिख सकते| उनकी भी जिनकी कथा गुमनामी में खो जाती है| लेखक होने की मूल शर्त है कि वो कोई जीवन जिए बिना ही उसे जी सके, बिना चोट लगे ही दर्द महसूस कर सके, बिना आंसू बहाये उनकी गर्मी अपने गालों पर महसूस कर सके| औरों की हंसी मे खुश हो सके, किसी दौड़ते हुए तो देखकर उसकी तेज धड़कन को अपने सीने में महसूस कर सके|

पर क्या लेखक हर चीज को अनुभव कर सकता है?
जी हाँ, लेखक के पास जो मूल चीजें होनी चाहियें वो हैं भावनाओं का सागर, शब्दों की खेती और इन दोनों का संतुलित मेल करने की प्रतिभा| फिर वो कुछ भी लिख / कह सकता है| लेखक अपनी तीव्र भावनाओं के सहारे अपने पात्रों का जीवन खुद जीता है(जहनी तौर पर), उनकी ख़ुशी में खुश होता है, उनके रुदन में रोता है, उनके साथ मयकदे में जाता है, मंदिर-मस्जिद, बाजारों में जाता है, उनके हाथ में पड़े छालों की पीड़ा अपने हाथों में महसूस करता है| अपने पात्रों के अकेलेपन में लेखक अकेला होता है, उनके नाचने पर नाचता है| यानि हर वो मनःस्थिति जो उसके पात्र व्यक्त करते हैं, लेखक उनसे होकर गुजरता है|

नारी की कथा कहते हुये वो नारी होता है, पुरुष की कथा कहते समय पुरुष, दलित की व्यथा कहते समय वो एक तिरस्कृत और दलित होता है, राजा के समय राजा और प्रजा की कहते समय प्रजा होता है| वही जब माँ के लिए लिखता है तो उसकी गोद में बैठा बच्चा बनकर और पिता के बारे में लिखता है तो उनके सीने पर उछलकूद मचाते, उनकी मूंछे उखाड़ते बच्चे को महसूस करते हुए|फिर इस अनुभव को अपनी शब्दों की खेती की मदद से कागज पर उन पात्रों को जिन्दा कर देता है| फिर वो पात्र कागज पर जिन्दा होकर हम पाठकों से बातें करते हैं| लेखक की सफलता का पैमानों में एक महत्त्वपूर्ण पैमाना ये भी है कि उसके पात्रों ने पाठकों से कितनी बातें की हैं, उनको आज भी वे कितने अपने लगते हैं|


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