रविवार, 27 सितंबर 2015

ऐ गनपत, चल दारु ला

और जब मैंने गणपति विसर्जन के डीजे में "ऐ गनपत, चल दारु ला" सुन लिया तब मुझको पक्का यकीन हो गया कि हमें विश्वगुरु बनने से कोई नहीं रोक सकता।
जरा महसूस करिये कितनी भक्ति डूबी है इस गीत में। भगवान और भक्त एकाकार हो गये हैं। भगवान शोषित वर्ग के प्रतिनिधि बन गये हैं। इस अवतार में वो बार टेंडर के स्वरूप में उतरे हैं। अपने भक्तों को सोमरस का वितरण करते हैं।
भक्त भगवान का दास नहीं है। आध्यात्मिक रूप से वो इतना उन्नत है कि भगवान को सीधा आदेश देता है कि ऐ गनपत, चल दारु ला यानि जा सोमरस लेकर आ। भक्त आधुनिक है उसे पता है कि भगवान से क्या क्या काम लिया जा सकता है। कोई वर्ग भेद नहीं है, कोई कर्म भेद नहीं है। महफ़िल सजी है, कभी साकी पिलाती थी, आज गनपत पिलायेंगे। आहा हा, क्या सुन्दर हिंदुत्व है।
ये जो पवित्र सोमरस है न, बड़े काम की चीज है। हमारे देव और भक्त इस रस के विशेष रसिक रहे हैं। वो तो नाश हो इन अंग्रेजों और म्लेच्छों का जो इसे सर्वसुलभ कर दिया। कालान्तर में सोमरस के भिन्न भिन्न संस्करण आये जिन्हें श्रद्धालुओं ने श्रद्धानुसार कभी शराब कभी बीयर तो कभी दारु कहा।
हे गनपत, इन म्लेच्छों को कभी क्षमा मत करना। पर उसके पहले - ऐ गनपत, चल दारु ला

बने रहो "भैया" और "बिहारी"

क्या इस बात पर कभी गौर किया है कि पूरे देश में हम यूपी बिहार वाले ही इतनी हेय दृष्टि से क्यूँ देखे जाते हैं. जब किसी का मन होता है यूपी बिहार वालों को गरिया लतिया लेता है. उसके बाद भी भर भर के हम लोग हर राज्य में पहुंचे रहते हैं. कभी सोचा है क्यों ?

हम समाजवाद, बहुजनवाद, मंडल और कमंडल के सताये हुये जीव हैं. ये जो हम गली गली घूमते हैं किसी शौक में नहीं घूमते. शौक में घूमते तो किसी में हिम्मत  न होती कि चूं कर सके. हम इसलिये भटकते हैं क्योंकि हमारे गृह राज्यों में हमारा कोई ठौर ठिकाना नहीं है. हम घर से १००० - २००० किलोमीटर दूर रहने के लिये अभिशप्त हैं. हर किसी को अपने घर से मोह होता है. इतना आसानी से नहीं छोड़ा जाता. पर छोड़ना पड़ता है.

इस समाजवाद, बहुजनवाद, मंडल और कमंडल की राजनीति में किसका भला हुआ और किसका बुरा हुआ वो एक अलग विषय है पर एक बात तो तय है कि उप्र और बिहार आज भी कमजोर और लाचार राज्य हैं, बुनियादी सुविधाओं के नाम पर कुछ चमकती हुई सड़के हैं पर उतने से कुछ नहीं होता. बाकी राज्यों ने अगर खुद को सुधारा है, बुनियादी सुविधाओं का ध्यान दिया है और अपने यहाँ व्यवसायियों को आकृष्ट किया है तो उप्र बिहार ऐसा क्यों नहीं कर सकते.

 युवाओं को अपने गृहराज्य में ही रोजगार मिले इसके लिये आवश्यक है कि वहाँ पर रोजगार देने वाली कम्पनियां भी मौजूद हों. पर कम्पनियाँ क्यों नहीं आना चाहतीं. व्यवसाय के लिये जो सबसे जरुरी तत्व हैं वो उप्र  बिहार में बहुत बुरी हालत में हैं  -

१- अच्छी यातायात व्यवस्था
२- अच्छी कानून व्यवस्था
३- बिजली पानी की समुचित आपूर्ति
४- महिला सुरक्षा
५- बढ़िया मोबाईल और इंटरनेट कनेक्टिविटी
६- नवोन्मेष का सम्मान और सत्कार
७- सरकार और प्रशासन का सहयोगी रुख

इनमें से किसी भी मोर्चे पर उप्र बिहार कर्नाटक, महाराष्ट्र, गुजरात, तमिलनाडू आदि के सामने नहीं ठहरते. तो फिर कोई व्यवसायी अपना नुकसान कराने क्यूँ आयेगा. अगर हम ये करने में समर्थ नहीं हैं तो एडोब आगरा, गूगल गोरखपुर, माइक्रोसॉफ्ट पटना, ऑरेकल आरा, फ्लिप्कार्ट फ़ैजाबाद का सपना बस सपना ही रहेगा.

अगर हम चाहते हैं कि हमारी अगली पीढ़ियों का हाल भी हमारे जैसा न हो तो हमें अपनी सरकारों पर इन बातों के लिये दबाव डालना होगा. नहीं तो फिर बने रहो "भैया" और "बिहारी"
 

मंगलवार, 25 अगस्त 2015

सोनवा के पिंजरा में

लड़की की विदाई से जुड़े गीतों की बात करें तो पहली भोजपुरी फिल्म "गंगा मैया तोंह्के पियरी चढ़ाईबैं" के गीत जितना मार्मिक और सुमधुर गीत मुझे कोई नहीं लगता.

इस गीत के बोल बहुत ही मर्मस्पर्शी हैं और रफ़ी साहब ने गाकर इस गीत को अमर बना दिया है.

गीत के बोल हैं -

सोनवा के पिंजरा में बंद भईल हाय राम
चिरई के जियरा उदास
टूट गईल डालियाँ छितर गईल छोटबा
छूट गईल नील रे आकाश
सोनवा के पिंजरा मां ...

छल\-छल नैंना निहारे चुपके रही
चलली बिदेसवा रे मईया के दुआर \-२
आँसुओं के मोतियाँ निसानी मोरे बाबुला \-२
धारी गईनी हमको रे पार
सोनवा के पिंजरा मां ...

छल\-छल रह गईली संग कि सहेलियाँ
ले गई बाँध के निठुर रे बहेलिया \-२
मोरे मन मितवा भुला दे अब हमरा के \-२
छोड़ दे मिलन की तू आस
सोनवा के पिंजरा मां ...

शनिवार, 20 जून 2015

हिंदी प्रेमी के हसीं सपने

कैसा होता कि विज्ञान की सारी जानकारी इंटरनेट पर हिंदी में उपलब्ध होती? विज्ञान का एक कॉपीराइट मुक्त कोश होता।
कोई कल्पना भी नहीं कर सकता कि इससे कितने लोग लाभान्वित होंगे। हिंदी माध्यम के बच्चों के लिये पाठ्य पुस्तक, शिक्षक और सहपाठियों को छोड़कर अन्य कोई स्रोत नहीं है जहाँ वो अपनी जिज्ञासा मिटा सकें / बढ़ा सकें। यह कोश विज्ञान के समग्र अध्ययन के बहुत काम आयेगा।
और इसके लिये चाहिये क्या? विज्ञान की पृष्ठभूमि वाले कम से कम 20 उत्साही लोग जो सरल भाषा में वैज्ञानिक तथ्यों को लिख पायें। और अपने इस समय व श्रम के बदले में कुछ भी पाने की उम्मीद न रखें।

पाठकीय समीक्षा - एक गधे की आत्मकथा / कृश्न चन्दर

“एक गधे की आत्मकथा” कृश्न चन्दर जी की बहुत ही सधी हुई व्यंग्य कृति है| आप पूरी पुस्तक पढ़ डालिये, फिर भी आप इसी पसोपेश में रहेंगे कि ये आदमी के रूप में गधा है या गधे के रूप में आदमी|
इस संग्रह में उन्होने गधे के माध्यम से पूरे सामाजिक, राजनीतिक व प्रशासनिक ढाँचे पर प्रहार किये हैं| मुख्य पात्र एक गधा है| उसी के मुख से सारी कहानी कही गयी है| कैसे वह बाराबंकी में ईंट ढ़ोने के काम से छुटकारा पाकर देश की राजधानी दिल्ली गया, कैसे वहाँ रामू धोबी से मुलाक़ात हुई, और रामू धोबी की मृत्यु के बाद उसके परिवार के भरण पोषण हेतु गधे ने कहाँ कहाँ चक्कर लगाये, कितनी ठोकरें और लातें खाईं, इन सब का बड़ा ही सजीव और रोचक वर्णन है| पुस्तक के प्रारम्भ में ही लेखक कहता है – “इसके पढ़ने से बहुतों का भला होगा”|



गधा रामू धोबी के यहाँ काम करने लगा था| एकाएक रामू की मृत्यु मगरमच्छ के हमले से हो जाती है| अब उसका परिवार भूखों मरने की हालत में आ जाता है| गधा मुसीबत के वक्त में उनका साथ देने का निश्चय करता है| गधे की खासियत है कि “वो इंसान की भाषा में बोलता है” | जब लोग आश्चर्य करते हैं कि ये तो गधा है, इंसान जैसा कैसे बोल रहा है तब कृश्न चंदर के लेखन का पैनापन देखने लायक है| उनका गधा तपाक से उत्तर देता है कि जब इंसान इंसान होकर गधों के जैसा बोल सकता है तो गधा इंसान जैसा क्यूँ नहीं बोल सकता| लेखक ने एक जगह लिखा है – “नई दिल्ली में ऐसे तो बहुत लोग होंगे जो इंसान होकर गधों की तरह बातें करते हों लेकिन एक ऐसा गधा, जो गधा होकर इंसानों की सी बात करे, हेडकान्स्टेबल ने आज तक देखा सुना न था।”
रामू के परिवार के लिये जीविका के बंदोबस्त के लिये बेचारा गधा इस कार्यालय से उस कार्यालय घूमते- घूमते परेशान हो जाता है| हर कोई उसे अगले ऑफिस भेजकर छुटकारा पा लेता है | वित्त मंत्री, मत्स्य विभाग, मजदूर यूनियन आदि से निराश होकर आखिर में गधा प्रधानमंत्री नेहरू से मिलने का निर्णय करता है| नेहरू से गधे की मुलाक़ात बड़ी रोचक है| ज्ञान विज्ञान, पंचशील, पंचवर्षीय योजना आदि विषयों पर नेहरू और गधे का संवाद होता है| नेहरू गधे की सवारी भी करते हैं| फिर तो गधे की किस्मत ही बदल जाती है| उसके बाद तो वो गधा पूरे देश में प्रसिद्ध हो जाता है| विदेशी पत्रकार भी उसके साक्षात्कार लेते हैं| उसके बाद गधे के साथ क्या क्या होता है, बहुत ही रोचक घटनाक्रम है|
पूरी पुस्तक में लेखक ने अपनी मजबूत पकड़ बनाये रखी है| भाषा प्रांजल और स्वाभाविक है, शैली मारक है| शोषित वर्ग के लिये सहानुभूति लेखक की हर पंक्ति से प्रकट होती है| गधे को माध्यम बनाकर लेखक ने सौदर्य प्रतियोगिताओं के आयोजन पर प्रश्नचिन्ह लगाए हैं| सौंदर्य की परिभाषायें दी हैं| एक बड़ा मजेदार प्रसंग है जब गधा साहित्य अकादमी की बैठक में पहुँच जाता है| गधा सवाल करता है कि उनके लिये आप क्या कर रहे हैं जो बहुत अच्छा लिख सकते थे पर भूख और गरीबी ने उन्हें लिखने नहीं दिया|
उदाहरणस्वरूप पुस्तक के कुछ अंश प्रस्तुत हैं:
1- बाराबंकी से दिल्ली यात्रा के बीच:
“मौलवी- अच्छा, यह बताओ, तुम हिन्दू हो या मुसलमान ? फिर हम फैसला करेंगे।
मैं-हुजूर, न मैं हिन्दू हूं न मुसलमान। मैं तो बस एक गधा हूं और गधे का कोई मज़हब नहीं होता।
मौलवी-मेंरे सवाल का ठीक-ठीक जवाब दो।
मैं-ठीक ही तो कह रहा हूं। एक मुसलमान या तो हिन्दू गधा हो सकता है, लेकिन एक गधा मुसलमान या हिन्दू नहीं हो सकता।
*** *** *** ***
2- गधे का दिल्ली आगमन और उसके द्वारा देखी गयी दिल्ली
//दिल्ली का भूगोल
“इसके पूर्व में शरणार्थी, पश्चिम में शरणार्थी, दक्षिण में शरणार्थी और उत्तर में शरणार्थी बसते हैं। बीच में भारत की राजधानी है और इसमें स्थान-स्थान पर सिनेमा के अतिरिक्त नपुंसकता की विभिन्न औषधियों और शक्तिवर्धक गोलियों के विज्ञापन लगे हुए हैं, जिससे यहां की सभ्यता तथा संस्कृति की महानता का अनुभव होता है। एक बार मैं चांदनी चौक से गुज़र रहा था कि मैंने एक सुन्दर युवती को देखा, जो तांगे में बैठी पायदान पर पांव रखे अपनी सुन्दरता के नशे में डूबी चली जा रही थी और पायदान पर विज्ञापन चिपका हुआ था,
असली शक्तिवर्धक गोली इन्द्रसिंह जलेबी वाले से खरीदिए !’ “
मैं इस दृश्य के तीखे व्यंग्य से प्रभावित हुए बिना न रह सका और बीच चांदनी चौक में खड़ा होकर कहकहा लगाने लगा।“
*** *** *** ***
“दिल्ली में नई दिल्ली है और नई दिल्ली में कनाटप्लेस है। कनाटप्लेस बड़ी सुन्दर जगह है। शाम के समय मैंने देखा कि लोग लोहे के गधों पर सवार होकर इसकी गोल सड़कों पर घूम रहे हैं। यह लोहे का गधा हमसे तेज़ भाग सकता है, परन्तु हमारी तरह आवाज़ नहीं निकाल सकता। यहां पर मैंने बहुत से लोगों को भेड़ की खाल के बालों के कपड़े पहने हुए देखा है। स्त्रियां अपने मुँह और नाखून रंगती हैं, और अपने बालों को इस प्रकार ऊंचा करके बांधती हैं कि दूर से वे बिल्कुल गधे के कान मालूम होते हैं। अर्थात् इन लोगों को गधे बनने का कितना शौक है, यह आज मालूम हुआ।“
*** *** *** ***
“यह तो कोमलांगियों की मजबूरी है कि वे सदा सुन्दर गधों पर मुग्ध होती हैं| “
~ पद्म भूषण कृश्न चन्दर (1914-1977)

Lords of the flies Review


शानदार फ़िल्म। बालमन का बेहतरीन चित्रण। आशावाद और निराशावाद का द्वन्द, भय और साहस का द्वन्द
समाज से दूर एक टापू पर प्राकृतिक अवस्थाओं में रहते हुये कैसे हमारा जंगलीपन और आदिम युग का मानव वापस आता है ये फ़िल्म उसका बहुत ही सुंदरता से वर्णन करती है।
बच्चों का एक ग्रुप जो कि हवाई दुर्घटना में एक समुद्री टापू पर फँस जाता है और उसके बाद उसमें हिंसा निराशा बर्बरता आदि बढ़ती हैं।
बच्चों के दो ग्रुप हो जाते हैं एक को लगता है कि उन्हें कोई नहीं बचायेगा अब ये जंगल ही उनका घर है। दूसरा ग्रुप इस उम्मीद में रहता है कि कभी कोई जहाज उनकी मदद को आ जायेगा। दूसरे ग्रुप की संख्या धीरे धीरे कम होती है और पहले ग्रुप की बढ़ती जाती है। पहला ग्रुप मानता है कि हम जंगल में हैं तो शहरियों की तरह रहना बेवकूफी है, हमें जंगलियों की ही तरह रहना चाहिये।
अंत बहुत सुन्दर बन पड़ा है।

आम आदमी का सीन

वो हमेशा चुप रहता है
वो सुख और दुःख दोनों को दबाकर जीता है
वो जुल्म सहता है , जुल्म होने देता है
वो जो सबसे बड़ा तमाशबीन है
वो जो दफ्तरों में धक्के खाता है
जो हर काम में लिये लाइन में लग जाता है
वो जो घर से जल्दी निकलता है
और रात को देर से जाता है
वो जो मेहनत करता है
और मुनाफा बिचौलिया खाता है
वो जो इतना दीन है
कहने को तो बहुत है पर
आगे का हाल फिर कभी
हाँ, इतना बता दूँ कि
ये आम आदमी का सीन है।

बहाव


तुम सुनते रहे, मैं कहता रहा
तुम रोकते रहे, मैं बहता रहा
पर जब बहाव बढ़ता गया
तो तुम भी क्यूँ न बह गये,
आखिर तुम किनारे ही क्यूँ रह गये ??

खुशियाँ बाँटें

शरद ऋतु की एक शाम। किशोरवय मंजरी अपने द्वार पर टहल रही थी। शाम की सुहानी हवा का आनंद लेते हुये उसे एक ख्याल आया। क्यों न वो अपने द्वार पर फूलों के पौधे लगा दे। जब वो खिलेंगे तो कितना सुन्दर हो जायेगा उसका द्वार।

लड़कियों में घर बार को सजा कर रखने की प्रवृत्ति बचपन से ही होती है। मंजरी में भी ये शौक भरपूर था। फिर क्या था। उसने ढेर सारे गेंदे के फूल लगा दिये अपने दरवाजे पर। उनको समय पर पानी देना, साफ़ सफाई और किसी प्रकार के नुकसान से उनकी सुरक्षा करने का काम मंजरी ने पूरी तन्मयता से किया। और एक दिन आया जब उसके दरवाजे पर फुलवारी लहलहा उठी। छोटे बड़े, हलके गाढ़े तमाम तरह के गेंदे के फूलों ने मंजरी के घर की खुबसूरती में चार चाँद लगा दिये।

उसी गाँव में एक माली रहता था। वो कभी कभार मंजरी के घर आया जाया करता था। इस बार जब वो आया और इतने सुन्दर फूलों की क्यारियाँ देखी तो पूछ बैठा कि क्या मैं इनमें से कुछ फूल तोड़ सकता हूँ? घर वालों ने कहा कि इन फूलों की मालिक तो मंजरी है। उसी ने बड़े शौक से इन्हें लगाया है और वही इनकी देखभाल करती है। बेहतर होगा कि तुम मंजरी से पूछ लो। माली ने बात समझ ली और मंजरी से फूलों को तोड़ने की अनुमति चाही। मंजरी ने अनुमति तो दे दी पर साथ में ये शर्त भी रखी कि चाहे जितने फूल तोड़ो पर हर पेड़ कर कुछ फूल बचे रहने चाहिये। फुलवारी की खूबसूरती नहीं जानी चाहिये। माली ने तुरंत हाँ कर दी।
 
उस दिन के बाद से माली रोज आता और फूल तोड़कर ले जाता। कई दिन बीतने के बाद एक दिन मंजरी ने माली से पूछा कि आखिर वो इन फूलों का करता क्या है। माली मुस्कुराया और बोला - 'जी, मैं तो माली हूँ। और क्या करूँगा। बाजार में बेच देता हूँ। सही कीमत मिल जाती है। कुछ पेट पालने का सहारा हो जाता है।'
'तो तुम खुद भी फूलों की खेती क्यों नहीं करते?' , मंजरी ने उत्सुकता से पूछा।
 
'कहाँ से करें बिटिया, हमार पास खेत ही कितने हैं। जो थोडा बहुत घर आँगन में जमीन है, उसमें फूल लगा रखे हैं पर उतने से गुजारा नहीं हो पाता।' माली ने लंबी सांस ली। ये सुनते ही मंजरी को एक विचार सूझा। उसने माली से कहा कि क्यों न तुम तरह तरह के फूलों के पौधे सारे गाँव वालों में मुफ़्त में बाँट दो। सबके पास जमीनें हैं। उन्हें तुम्हारे फूल लगा कर ख़ुशी होगी। फिर तुम जैसे मेरे फूल ले जाते हो वैसे ही उनसे भी पूछ लेना। मुझे तो लगता है कि कोई भी मना नहीं करेगा।
 
माली को ये विचार बहुत सुन्दर लगा। वो उत्साह से भर गया। उसने सारे गाँव वालों से बात की। सब ख़ुशी ख़ुशी तैयार हो गये। फिर क्या था, उसने सबको पौधे लाकर दिये और महीने भर के अंदर ही पूरा गाँव खुशबू से भर गया। जिधर भी नजर उठती एक से एक सुन्दर फूल खिले दिखते। माली के थोड़े से फूल ले लेने पर किसी को कोई आपत्ति न थी। सबके थोड़े थोड़े फूल मिलकर अब माली के पास इतने फूल आ जाते थे जिससे उसकी कमाई बढ़ गई और वो पहले से अधिक सुखी हो गया।

इस प्रकार मंजरी के प्रकृति प्रेम और सहज बुद्धि की वजह से पूरे गाँव में फुलवारियाँ खिल उठीं और माली की भी चिंता दूर हो गयी।

आपका शौक भी कल आपको आगे ले जा सकता है या किसी और को आगे बढ़ने में मदद कर सकता है इसलिये चिंगारी जलाये रखिये, शौक बनाये रखिये। सफलता मिलेगी, जरूर मिलेगी।
-- अवनीश कुमार

पूछो न कुछ परिचय, मित्र !

पूछो न कुछ परिचय, मित्र !
समझो इतना आशय, मित्र !
बस मिलो सदा ऐसे हँसकर,
अब रहो सदा उर में बसकर,
हर क्षण हो जीवन का सुखकर,
कर लो इतना निश्चय, मित्र !
चहुं ओर जब पुष्प खिलेंगे,
जब अवरोधों के मूल हिलेंगे,
जीवन पथ पर पुनः मिलेंगे,
करिये ना कुछ संशय, मित्र !

शनिवार, 6 जून 2015

हे देवराज इंद्र, आपकी अप्सरायें कहाँ हैं

कुछ लोग परफ्यूम / डियो के इतने दीवाने होते हैं कि लगता है एक ही बार में आधी बोतल उड़ेल ली है। शायद डियो लगाते ही लड़कियों द्वारा घेर लिये जाने और पीछा करने वाले विज्ञापनों का सबसे ज्यादा असर इन्ही पर होता है।

ऐसे जीवों से अक्सर पाला पड़ता है। आज ही लोकल में एक डियोप्रेमी मिल गये। हमउम्र थे और जमकर जियो का प्रयोग किया था। इतना अधिक कि खुशबु के बजाय वो बदबू में बदल गया था। लोकल ट्रेन्स में आपको मूवमेन्ट के ज्यादा विकल्प नहीं होते। जैसे हैं वैसे पड़े रहिये। भाई, सर घूम गया। आसपास के लोग भी मुँह फेर कर ऐसे बैठे थे जैसे खाप पंचायत ने उसको विरादरी से बाहर कर दिया हो।
एक तो पहले से ही हार्ड डियो, दूसरे उसकी हार्ड डोज ..
हे देवराज इंद्र, आपकी अप्सरायें कहाँ हैं .....

शुक्रवार, 29 मई 2015

[मेरी प्रथम बाल कविता - "बोलो पानी क्यूँ है नीला"]

दो भाई श्यामू और रामू
दोनों शरारती बंदर,
एक दिन की ये बात सुनो
वो गए घूमने समुन्दर|

बोलो पानी क्यूँ है नीला
रामू पूछे श्यामू से,
क्यूँ नहीं काला या पीला
रामू पूछे श्यामू से|

श्यामू भी बच्चा था आखिर
श्यामू तो फिर क्या बोले
श्यामू बोला चल रामू
चल सबसे पूछें भोले|

रामू ने मम्मी से पूछा
मम्मी ने पापा से पूछा
पापा ने चाचा से पूछा
चाचा ने दादा से पूछा

सबने इससे उससे पूछा
फिर भी न उत्तर किसी को सूझा
अब तो मास्टर जी से पूछो
बचा न कोई रस्ता दूजा|

मास्टर जी हैं बड़े प्रतापी
मास्टर जी विद्वान हैं,
कहते हैं कि पास मे उनके
कईयों कुंतल ज्ञान है|

श्यामू ने उनसे भी पूछा
बोलो पानी क्यूँ है नीला
बोलो बोलो मास्टर जी
क्यूँ नहीं ये लाल पीला|


 

 मास्टर जी थोड़ा मुस्काये
फिर थोड़ा सा ध्यान लगाये
दोनों को फिर पास बिठाये
और उनको उत्तर बतलाये|

सूरज से किरणें आती हैं
फिर सब दिशाओं में जाती हैं
नदी, सरोवर या हो समुद्र
जल में भी घुस जाती हैं|

ये किरणें सतरंगी हैं
सारी रंग बिरंगी हैं
जो चीज जैसा रंग लौटाये
वो वैसे रंग में रंगी है|

समुन्दर है इतना गहरा
किरणें तल तक न जातीं
ऊपर ही ऊपर से लगभग
सब की सब वापस आतीं|

पानी सोखे सारे रंग
लौटाये बस नीला रंग
देख के उसका ऐसा करतब
तुम दोनों बैठे हो दंग|

जब वो नीला लौटाता है
खुद नीला ही हो जाता है
फिर ये उसका नीला रूप
हम सबको ही लुभाता है|

जो जैसा सबको देता है
खुद भी वैसा ही पाता है
सुन लो प्यारे रामू श्यामू
ये सागर यह सिखलाता है|

बुधवार, 25 मार्च 2015

बिहार में नक़ल की तस्वीर


बिहार की ये तस्वीर सोशल मीडिया पर बहुत वाइरल हो रही है| और बिहार की शिक्षा व्यवस्था का मखौल उड़ाया जा रहा है| मेरी अपनी राय इस सामान्यीकारण के कहीं विपरीत है|

१ - तस्वीर के मुताबिक़ विद्यालय के कर्मचारी इसमें सम्मिलित नहीं हैं| यदि वे सम्मिलित होते तो किसी को छत पर चढ़ने की जरूरत न पड़ती| रुपये पैसे ले देकर अंदरखाने में ही सेटिंग हो जाती|

२ - पर्चियाँ अंदर पहुँच रही हैं कि नहीं ये कक्ष निरीक्षक पर निर्भर है| कक्ष निरीक्षक को कुछ पता हो न हो इतना जरूर पता है कि जो लोग अपनी जान पर खेलकर यहाँ पर पर्ची ला रहे हैं वो उसकी भी जान से खेल सकते हैं| कोरे आदर्शवाद से कुछ नहीं होता| उसको भी घर वापस जाना है|

३ - स्टाफ़ की कमी और स्थानीय गुंडा तत्वों का डर भी विद्यालय प्रशासन को सख्त कार्रवाई कर पाने में रुकावट बन सकता है| स्थानीय पुलिस और उड़नदस्ते की आवश्यकता है|

४ - नक़ल नक़ल का शोर मचाने से पहले हमें ये भी सोचना होगा कि आखिर वे कौन से हालात हैं कि अभिभावक अपने बच्चों को गलत माध्यमों से पास करा रहे हैं और इतना ही नहीं अपनी भी जान जोखिम में डाल रहे हैं| ये हमारी शिक्षा व्यवस्था की दीनता की तस्वीर है, नक़ल की नहीं|

५ - नंबर गेम| आजकल लगभग हर प्रतियोगी परीक्षा या नौकरी के लिये नम्बर्स और ग्रेड्स के पैमाने तय होते हैं| जैसे न्यूनतम ७० %, न्यूनतम फर्स्ट क्लास आदि|
अब जो छात्र ४० - ५९ % वाला है वो क्या करे? वो तो न पास हुआ न फेल| उसके लिये क्या रास्ता है? क्या उसको सेकण्ड या थर्ड डिवीजन लाने के बजाये फेल हो जाना चाहिये था?

६ - जब सिर्फ ६०+ की ही स्वीकार्यता है और उससे नीचे वालों को सरकारी / गैरसरकारी संस्थान न तो आगे पढ़ने लायक समझते हैं और न ही नौकरी पाने लायक समझते हैं तो ऐसे हालातों में कोई भी चाहेगा कि येन केन प्रकारेण उसका पुत्र / पुत्री ६०+ ही रहे| भले ही उसे ये अच्छी तरह पता है कि उसके पुत्र / पुत्री में योग्यता ६० - वाली है|

८ - असल मसला नकल और उस पर रोक लगाने का नहीं है बल्कि इस सड़ी हुई शिक्षा को बदलने का है| एक ऐसी व्यवस्था की आवश्यकता है जिसमें निर्बल का भी सम्मान हो, जो सह अस्तित्त्व को बढ़ावा दे| एक ऐसी रोजगार व्यवस्था जो कम ग्रेड्स वालों को भी इंसान समझे, उनमें भी हुनर है और काबिलियत है, इस पर विश्वास करे|

शिक्षा और रोजगार व्यवस्था में परिवर्तन किये बिना सिर्फ इस तस्वीर का मजाक उड़ाना बेमानी है| ऐसी तस्वीरों को नहीं देखना है तो मूल कारण को ही समाप्त करना होगा|

शुक्रवार, 13 मार्च 2015

ख़ुशी खरीदी जा सकती है


लोग कहते हैं कि पैसे से ख़ुशी नहीं खरीदी जा सकती| पर मुझे लगता है कि पैसे से ख़ुशी खरीदी जा सकती है, वो भी ढेर सारी ख़ुशी| बस इतना ध्यान देना है कि पैसा सही जगह और सही तरीके से खर्च हो, टाइमिंग का भी महत्त्व है|
जैसे किसी का जन्मदिन हो और आप उसके लिये सरप्राइज़ पार्टी रखें, उसको कोई उपहार दें| किसी को फोटोग्राफी में रूचि है, उसको कैमरा दे दें| कोई पढ़ने का शौकीन है, उसे उसकी रूचि की पुस्तक दे दें| किसी को कुछ सीखना है वो सिखा दें| अगर खुद नहीं सिखा सकते तो उचित व्यक्ति के पास भेजें| किसी से सीरियस बातें कर रहे हों और एकाएक चाकलेट खाने को दे दें|
फिर देखें, ख़ुशी कितनी आसानी से खरीदी जा सकती है|
ये बात मैंने Arun Mishra सर से सीखी है|

बुधवार, 18 फ़रवरी 2015

Roy - Movie

'रॉय' फिल्म लेखकों को सताने वाली एक मानसिक स्थिति के ऊपर बनी है जिसे अंग्रेजी में "राइटर्स ब्लॉक " कहते हैं| इस स्थिति में लेखक को कुछ नहीं सूझता कि क्या लिखा जाये|
पर मजे की बात ये कि ये फिल्म हिंदी के क्रिटिक्स को ही नहीं समझ आ रही| इसको मिले ख़राब रिव्यू तो यही कह रहे हैं| फिल्म क्रिटिक्स को ये बात भी समझनी चाहिये कि कौन सी फिल्म किस तरह के दर्शक वर्ग के लिये है|
'रॉय', 'पीके', 'लंचबाक्स' और 'हैपी न्यू ईयर' चारो के दर्शक वर्ग अलग हैं और इनकी गुणवत्ता मापने का पैमाना भी एक नहीं हो सकता|
फिल्म की गुणवत्ता इस बात से मापी जानी चाहिये कि वो अपने दर्शक वर्ग का मनोरंजन करने में कितनी सफल रही| एक ही डंडे से हाँकेंगे तो अच्छी फिल्म को ख़राब और खराब फिल्म को अच्छी कह जायेंगे|
//फिल्म बोझिल है, रिलेक्स होकर देखने वालों की नहीं है| पूरा अटेंशन मांगती है|

सोमवार, 16 फ़रवरी 2015

स्वागत स्वस्थ मनोरंजन का

मुझे टीवी सीरियल्स से चिढ़ है|
कारण- हद दर्जे की बनावट और नाटकीयता| घर का हर सदस्य एक दुसरे को मारने के षड्यंत्रों में लगा है, एक डायलोग के बाद पाँच लोगों के चेहरे पाँच बार दिखाए जायेंगे और बैकग्राउंड में इरिटेटिंग म्यूजिक, गरीबी की वजह से भूखों मरने की नौबत आने वाली है पर लाइफस्टाइल करोड़पति का और गहने और साड़ियाँ कहीं से भी गरीबी की गवाही नहीं देते
पर एक दिन गलती से एक सीरियल पर पाँच मिनट रुक गया और वाह, मजा आ गया| एक नया चैनल आया है 'जिंदगी'| पाकिस्तानी चैनल है शायद| सीरियल का नाम था "मौसम", पूरा एपिसोड देख गया| गूगल और यूट्यूब पर पहुंचा तो समझ में आया कि ये टीवी सीरियल्स का ही चैनल है और इसके सारे सीरियल बड़े ही सामान्य और प्यारे हैं| उनको जबरदस्ती खींचने के बजाय ४० - ५० एपिसोड में कहानी समाप्त करके नया सीरियल शुरू करते हैं|
दूरदर्शन के सुनहरे दौर की यादें ताजा हो गयीं| सीधी सपाट कहानी, जबरदस्ती का ड्रामा नहीं, हमारे समाज के बीच से लिये गये सामान्य किरदार, उनके रूमानी संवाद, बिना तड़क भड़क के घर और कपड़े| बिलकुल आम से लोगों की आम सी कहानी जिससे अपने आस पास को कनेक्ट किया जा सके|
शायद ये चैनल सास बहू और फ़ालतू के नौटंकी सीरियल्स के दौर से छुट्टी दिलाते हुये स्वस्थ मनोरंजन का एक नया दौर शुरू करे|
आमीन

शनिवार, 14 फ़रवरी 2015

वेलेंटाइन डे

अगर आप और आपका पार्टनर एक दूसरे को इतना समझते हैं जितना कोई और नहीं समझता, एक दूसरे की बातें अक्सर बिना कहे ही समझ लेते हैं, आपकी आँखें और आपका चेहरा ही आपकी जुबां हैं, फिर भी एक दूसरे की आवाज सुने बिना चैन नहीं पड़ता, हर हाल में एक दूसरे को खुश देखना चाहते हैं।
और हाँ, इतना सब कुछ होने के बाद भी तकरारें लगी रहतीं हैं। और एक दूसरे को मनाने में कभी ईगो बीच में नहीं आता।
तो आप का हर दिन वेलेंटाइन डे है। ये दिन भी आपका ही है। खुश रहिये और इन दिन का भी आनंद लीजिये।

गुरुवार, 12 फ़रवरी 2015

खुश होना है तो कभी कभी बच्चे बन जाइये


कभी कभार ऐसा भी समय आता है जब हम बच्चे बन जाते हैं| समझना - बूझना बंद कर देते हैं, सारी "मैच्योरिटी" को एक कोने में डाल देते हैं| बस कोई मासूम सी जिद पकड़ कर बैठ जाते हैं| कहते हैं कि मुझे चाँद चाहिए| अब ये हम सुनना ही नहीं चाहते कि चाँद बहुत दूर है या चाँद को संभालना तुम्हारे बस की बात नहीं| अगर कोई समझाए भी तो ये समझ में नहीं आता|
हमें बस चाँद की खूबसूरती लुभाती है, उसकी चमक आँखों को सुहाती है| दिल और दिमाग अलग-२ दिशा में दौड़ने लगते हैं|
किसी शायर ने भी शायद ऐसे ही महसूस करके कहा है-
"दिल भी इक जिद पे अड़ा है किसी बच्चे की तरह
या तो सब कुछ ही इसे चाहिए या कुछ भी नहीं"
खैर, क्या करे दिल भी आखिर क्यूंकि "दिल तो बच्चा है जी "

मंगलवार, 20 जनवरी 2015

हिंदी में लिखना

२०१० से फेसबुक पटल पर हिंदी में लिख रहा हूँ| वो एक समय था जब दोस्त एकाएक से चौंक उठते थे - "अरे, हिंदी में भी लिख सकते हैं क्या? कैसे लिखा भाई, मुझे भी बताओ न"
अब तक सैकड़ों लोगों को बताया है कि कैसे लिखना है और कुछ मामलों में तो एक ही व्यक्ति को कई कई बार| पर ये देखकर बड़ी संतुष्टि होती है कि कभी मैं हिंदी लिखते समय बड़ा अकेला सा रहता था| आज दोस्तों की वाल भी हिंदी से भरी होती है| मजे की बात कि उन दोस्तों में से अधिकांश तो अब सिर्फ हिंदी में ही लिखते हैं| हिंदी के ब्लॉग, वेबसाइट्स आदि में जबरदस्त बढ़ोत्तरी हुई है| मोबाईल प्लेटफॉर्म्स पर हिंदी का सपोर्ट मिल रहा है|
अब जब उन दोस्तों की बात याद आती है कि अबे यार, दुनिया अंग्रेजी के पीछे पागल है और तू है कि अमरीकन की वेबसाईट पे हिंदी में लिख रहा है तो बरबस ही होठों पर मुस्कान आ जाती है|
ये मुस्कान हिंदी से है और हिंदी की है| आप भी मुस्कुराइये, हिंदी में लिखिये और दूसरों को भी मुस्कुराने का मौका दीजिये|